Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
किञ्च ज्ञानान्तरापेक्षया तत्र कर्मत्वविरोधः, स्वरूपापेक्षया वा ? प्रथमपक्षे-महेश्वरस्यासर्वज्ञत्वप्रसङ्गस्तज्ज्ञानेन तस्याऽवेद्यत्वात् । अात्मसमवेतानन्तरज्ञानवेद्यत्वाभावे च
"स्वसमवेतानन्तरज्ञानवेद्यमर्थज्ञानम्" [ ] इति ग्रन्थविरोधो मीमांसकमतप्रवेशश्च स्यात् । ज्ञानान्तरापेक्षया तस्य कर्मत्वाविरोधे च-स्वरूपापेक्षयाप्यविरोधोऽस्तु सहस्रकिरणवत्स्वपरोद्योतनस्वभावत्वात्तस्य । कर्मत्ववच्च ज्ञान क्रियातोऽर्थान्तरस्यैव करणत्वदर्शनात्तस्यापि तत्र विरोधोऽस्तु विशेषाभावात् । तथा च 'ज्ञानेनाहमथं जानामि' इत्यत्र ज्ञानस्य करणतया प्रतीतिर्न स्यात् ।
पड़ेगा । तुम कहो कि घट में भासुरपना आदि नहीं हो तो न होवे, किन्तु दीपक में तो भासुरपना आदि स्वभाव पाये ही जाते हैं, क्योंकि वस्तुओं में भिन्न २ विचित्रता पायी जाती है, सो हम जैन भी यही बात कहते हैं, अर्थात् छेदन आदि क्रिया अपने आप में नहीं होती तो मत होने दो, ज्ञान में तो जानने' रूप क्रिया अपने आप में होती है, ऐसा आपको मानना चाहिये, भला ज्ञान ने ऐसा क्या अपराध किया है जो उसमें स्वभाववैचित्र्य नहीं माना जावे ?
हम आपसे पूछते हैं कि ज्ञान में जो कर्मत्त्व का विरोध है वह दूसरे ज्ञान के द्वारा जाना जाने की अपेक्षा से है, अथवा स्वरूप की अपेक्षा से है ? प्रथम पक्ष लेते हैं तो महेश्वर असर्वज्ञ हो जायगा, क्योंकि महेश्वर के ज्ञान के द्वारा वह ज्ञान जाना नहीं जायगा।
भावार्थ-यदि ज्ञान दूसरे ज्ञान के लिये भी कर्मत्वरूप नहीं होता है अर्थात् ज्ञान ज्ञान को जानता है इस प्रकार की द्वितीयाविभक्तिवाला (ज्ञान) ज्ञान दूसरे ज्ञान के लिये भी कर्मत्वरूप नहीं बनता है तब तो महेश्वर किसी भी हालत में सर्वज्ञ नहीं बन पायेगा। क्योंकि उसने हमारे ज्ञानों को जाना नहीं तब "सर्वं जानातीति सर्वज्ञः" इस प्रकार की निरुक्ति अर्थ वहां भी सिद्ध नहीं होता है। तथा ईश्वर के स्वयं के जो दो ज्ञान हैं उनमें से वह प्रथम ज्ञान से विश्व के पदार्थों को जानता है और द्वितीय ज्ञान से प्रथम ज्ञान को जानता है इस प्रकार जो माना गया है वह भी गलत ठहरता है । तथा जब महेश्वर का ज्ञान अपने में समवेत हुए ज्ञान को नहीं जानता है ऐसा माना जायगा तब "स्वसमवेतानंतर ज्ञान वेद्य मर्थ ज्ञान" पदार्थों को जाननेवाले ज्ञानको स्वयं में समवेत हुआ ज्ञान जानता है-स्वसमवेत ज्ञानद्वारा अर्थ ज्ञान वेद्य [जाननेयोग्य होता है ऐसा योग के ग्रन्थ में लिखा है उसमें विरोध प्रावेगा। इसी प्रकार योग यदि ज्ञान में सर्वथा कर्मत्व का विरोध करते हैं तो उनका मीमांसक
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