Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
सिद्धम्, इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-मनःसिद्धौ हि तस्याध्यक्षत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च सविशेषणहेतुसिद्धेमनःसिद्धिरिति । विशेष्यासिद्धत्वं च; न खलु घटज्ञानाद्भिन्नमन्यज्ज्ञानं तद्ग्राहकमनुभूयते । सुखादिसंवेदनेन व्यभिचारश्च; तद्धि प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानं न तज्जन्यमिति । अस्यापि पक्षीकरणान्न दोष इत्ययुक्तम् ; व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणे न कश्चिद्ध तुर्व्यभिचारी स्यात् । 'अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वाद् घटवत्' इत्यादेरप्यात्मादिना न व्यभिचारस्तस्य पक्षीकृतत्वात् । प्रत्यक्षादिबाधोभयत्र समाना । न हि इस प्रकार से कि मन के सिद्ध होने पर ज्ञान की प्रत्यक्षता सिद्ध होगी और ज्ञानकी प्रत्यक्षता सिद्ध होने पर विशेषण सहित हेतु की सिद्धि होने से मन की सिद्धि होगी।
हेतु का विशेष्य अंश भी प्रसिद्ध है, देखिये - घट आदि के ज्ञान को ग्रहण करने वाला उससे भिन्न कोई अन्य ही ज्ञान है ऐसा अनुभव में नहीं आता है, आपके इस "प्रत्यक्षत्वे सति ज्ञानत्वातू" हेतु का सुख दुःख आदि के संवेदन से व्यभिचार आता है, देखिये-सुख दुःख आदि का संवेदन प्रत्यक्ष होकर ज्ञान भी है किन्तु यह ज्ञान किसी सन्निकर्ष से पैदा नहीं हुआ है, अतः ज्ञान किसी दूसरे ज्ञान के द्वारा जाना जाता है; तथा वस्तुओं के ज्ञान को जानने वाला ज्ञान भी सन्निकर्ष से पैदा होता है इत्यादि हेतू अनैकान्तिक सिद्ध होते हैं।
योग- हम तो सुखादि संवेदन को भी पक्ष की कोटि में रखते हैं अतः दोष नहीं आयेगा।
जैन-यह कथन अयुक्त है, इस तरह जिस जिससे भी हेतु व्यभिचरित हो उस उसको यदि पक्ष में लिया जायगा तो विश्व में कोई भी हेतु अनैकान्तिक नहीं रहेगा, कैसे सो बताते हैं-किसी ने अनुमान बनाया "अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत्" शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रमेय है, जैसे कि घट प्रमेय होकर अनित्य है, यह प्रमेयत्व हेतु आत्मादि नित्य पदार्थों के साथ व्यभिचरित होता है । ऐसा सभी वादी प्रतिवादी मानते हैं। किन्तु इस हेतु को अब व्यभिचरित नहीं कर सकेंगे, क्योंकि आत्मादिक को भी पक्ष में ले लिया है ऐसा कह सकते हैं । तुम कहो कि आत्मादिक को पक्ष में लेते हैं-अर्थात् उसको अनित्य साध्य के साथ घसीट लेते हैं तो प्रत्यक्ष बाधा आती है अर्थात् आत्मा तो साक्षात् ही अमर अजर दिखायी देता है। सो यही बात सुख संवेदन को पक्ष की कोटि में लेने की है अर्थात् सभी ज्ञान सन्निकर्ष से ही पैदा होते हैं-तो सुख संवेदन भी सन्निकर्ष से पैदा होता है ऐसा कहने में भी प्रत्यक्ष बाधा आती है, क्योंकि सुखादि का अनुभव किसी भो इन्द्रिय और पदार्थ के
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