Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
मासिद्ध: । समवायात्तेषां श्रद्धायाश्च प्रतिनियमः इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्, तस्य षट पदार्थपरीक्षायां निराकरिष्यमारणत्वात् । के षट् पदार्थों की- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय इनकी परीक्षा करेंगे तब वहां समवाय का निराकरण करने वाले हैं, अतः समवाय संबंध से प्रत्यक्ष या श्रद्धा आदि का एक निश्चित व्यक्ति में संबंधित होकर रहना सिद्ध नहीं होता है ।
विशेषार्थ-प्रभाकर ने आत्मा और ज्ञान को अत्यन्त परोक्ष माना है, आत्मा और ज्ञान दोनों ही कभी भी जानने में नहीं पाते हैं ऐसा मीमांसक के एक भेदस्वरूप प्रभाकर मत का कहना है । इस मान्यता में अनेक दोष पाते हैं । ज्ञान यदि स्वयं को नहीं जानता है तो वह पदार्थों को भी नहीं जान सकता है। जैसे दीपक स्वयं प्रकाशित हुए विना अन्य वस्तुओं को प्रकाशित नहीं करता है, ज्ञान को प्रभाकर प्रात्मा से सर्वथा पृथक् भी मानते हैं । ज्ञान को अप्रत्यक्ष सिद्ध करने के लिये प्रभाकर सुख दुःख आदि का उदाहरण देते हैं कि जैसे सुखादि परोक्ष रहकर भी प्रतिभासित होते हैं वैसे ही ज्ञान स्वयं परोक्ष रहकर भी पदार्थों को प्रत्यक्ष करता है सो यह बात सर्वथा गलत है। ज्ञान और सुखादिक ये सभी ही अपने आप प्रत्यक्ष साक्षात् हुमा करते हैं । यदि सुख आदि अप्रत्यक्ष हैं तो उससे जीव को प्रसन्न होना आदिरूप अनुग्रह बन नहीं सकता, जैसे कि पराये व्यक्ति के सुख से अन्य जीव में प्रसन्नता नहीं होती है। प्रभाकर ने इन सुख प्रादि को आत्मा से सर्वथा भिन्न माना है, अतः उनका किसी एक ही आत्मा में निश्चित रूप से रहकर अनुभव होना भी बनता नहीं, सुखादिक का एक निश्चित आत्मा में निश्चय कराने के लिये वे लोग अदृष्ट की कल्पना करते हैं, किन्तु अदृष्ट भी आत्मा से भिन्न है सो वह नियम नहीं बना सकता है कि यह सुख इसी प्रात्मा का है। समवाय संबंध से सुख आदि का नियम बनावे तो भी ठीक नहीं क्योंकि भिन्न दो वस्तुओं को जोड़ने वाला यह समवाय नामक पदार्थ किसी प्रकार से सिद्ध नहीं होता है, श्रद्धा-(विश्वास) से अदृष्ट का निश्चय होवे कि यह अदृष्ट इसी आत्मा का है सो भी बात बनती नहीं, क्योंकि श्रद्धा भी प्रात्मा से पृथक् है । प्रत्यक्ष, स्मरण आदि प्रमाणों को लेकर श्रद्धा आदि का नियम किया जाय कि यह श्रद्धा इसी प्रात्मा की है सो यह भी गलत है, क्योंकि प्रत्यक्ष आदि प्रमाण भी प्रात्मा से भिन्न हैं । इस प्रकार सुख दुःख को आत्मा से संबद्ध करने वाला अदृष्ट, उस अदृष्ट को नियमित करने वाली श्रद्धा और उस श्रद्धा को संबंधित करने वाले प्रत्यक्षादि प्रमाण ये सब परंपरारूप से
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