Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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आत्मा प्रत्यक्षत्ववादः
३५१
मनोरथमात्रम्, परस्पराश्रयानुषङ्गात् प्रदृष्टनियमे सुखादेनियम:, तन्नियमाच्चादृष्टस्येति । 'यस्य श्रद्धयोपगृहीतानि द्रव्यगुणकर्माणि यददृष्टं जनयन्ति तत्तस्य' इत्यपि श्रद्धामात्रम्, तस्या अध्यात्मनो ऽत्यन्तभेदे प्रतिनियमासिद्ध े: । 'यस्यादृष्टेनासौ जन्यते सा तस्य' इत्यप्यन्योन्याश्रयादयुक्तम् । 'द्रव्यादी यस्य दर्शनस्मरणादीनि श्रद्धामाविर्भावयन्ति तस्य सा' इत्यप्युक्तिमात्रम्, दर्शनादीनामपि प्रतिनिय
और उन सुखादिक के नियम से अदृष्ट का उसी देवदत्त में रहने का नियम सिद्ध हो सके, इस प्रकार परस्पर में प्राश्रित होने से एक में भी नियम की सिद्धि होना शक्य नहीं है ।
प्रभाकर - जिस प्रात्मा के विश्वास से ग्रहण किये गये द्रव्य गुण कर्म जिस अदृष्ट को उत्पन्न करते हैं वह ग्रदृष्ट उस आत्मा का बन जाता है ।
जैन - यह वर्णन भी श्रद्धामात्र है, यह श्रद्धा या विश्वास जो है वह भी तो आत्मा से प्रत्यन्न भिन्न है । फिर किस प्रकार ऐसा नियम बन सकता है । अर्थातु नहीं बन सकता है |
प्रभाकर - जिस आत्मा के अदृष्ट से श्रद्धा पैदा होती है वह उसकी कहलाती है ।
जैन - इस प्रकार से मानने में भी अन्योन्याश्रय दोष का नियम बने तब अदृष्ट का नियम सिद्ध होवे और उसके सिद्ध नियम बने ।
प्रभाकर - द्रव्य प्रादि में जिस आत्मा के प्रत्यक्ष, स्मरण, आदि ज्ञान श्रद्धा को उत्पन्न करते हैं वह श्रद्धा उसी आत्मा की कहलाती है ।
जैन - यह कथन भी उपर्युक्त दोषों से अछूता नहीं है । आपके यहां प्रत्यक्ष आदि प्रमाणज्ञानों का भी नियम नहीं बन सकता है कि यह प्रत्यक्ष प्रमाण इसी आत्मा का है फिर किस प्रकार श्रद्धा या अदृष्ट का नियम बने ।
प्रावेगा - पहिले श्रद्धा
होने पर श्रद्धा का
प्रभाकर - हम तो समवाय से ही प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों का तथा अदृष्टादि का नियम बनाते हैं अर्थात् इस आत्मा में यह अदृष्ट या श्रद्धा अथवा प्रत्यक्ष प्रमाण हैं क्योंकि इसी में इन सब का समवाय है ।
जैन - यह तो विना विचारे ही जबाब देना है, जब हम बार २ इस बात को कह रहे हैं कि समवाय नामका आपका संबंध असिद्ध है तथा आगे जब आपके मत
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