Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
पावकान्तरादिपूर्वकत्वं तथा गर्भचैतन्यस्याविर्भूतस्वभावस्य तिरोहितचैतन्यपूर्वकत्वमिति ।
न चानाद्य कानुभवितव्यतिरेकेणेष्टानिष्ट विषये प्रत्यभिज्ञानाभिलाषादयो जन्मादौ युज्यन्ते; तेषामभ्यासपूर्वकत्वात् । न च मात्रदरस्थितस्य बहिविषयादर्शनेऽभ्यासो युक्तः; अतिप्रसङ्गात् । न चावलग्नावस्थायामभ्यासपूर्वकत्वेन प्रतिपन्नानामप्यनुसन्धानादोनां जन्मादावतत्पूर्वकत्वं युक्तम् ; अन्यथा धूमोऽग्निपूर्वकोदृष्टोप्यनग्निपूर्वक: स्यात् । मातापित्रभ्यासपूर्वकत्वात्तषामदोषोयमित्यप्यसम्भाव्यम् ; सन्तानान्तराभ्यासादन्यत्र प्रत्यभिज्ञानेऽतिप्रसङ्गात् । तदुपलब्धे 'सवं मयैवोपलब्धमेतत्' इत्यनुसन्धानं
संस्कार – पूर्व अभ्यास के कारण ही होते हैं । जब बालक माता के गर्भ में रहता है तब उसके बाहर के विषय में अभ्यास तो हो नहीं सकता, क्योंकि उसने अभी तक उन विषयों को देखा ही नहीं है, विना देखे अभ्यास या संस्कार होना मानोगे-तो सूक्ष्म परमाणु, दूरवर्ती सुमेरुपर्वतादि, अतीतकालीन राम आदि का भी अभ्यास होना चाहिये था, चार्वाक कहें कि चैतन्य में मध्यम अवस्था में जो प्रत्यभिज्ञान आदिक होते हुए देखे जाते हैं वे अभ्यास पूर्वक होते हुए ही देखे जाते हैं किन्तु जन्म जात बालकों के तो वे प्रत्यभिज्ञान आदिक विना अभ्यास के होते हैं सो ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि संस्कार पूर्वक होनेवाले प्रत्यभिज्ञान आदिक विना संस्कार के होने लग जायेंगे तो फिर अग्निपूर्वक होनेवाला धूम विना अग्नि के भी होने लगेगा-ऐसा मानना चाहिये ।
चार्वाक-बालक को जन्मते ही जो कुछ अभिलाषा आदि होती है उसमें कारण खुद के संस्कार नहीं हैं, बालक के माता पिता के संस्कार वहां काम आते हैं। अर्थात् बालक में माता आदि के अभ्यास से अभिलाषा आदि उत्पन्न होती है।
जैन—यह बात असंभव है, क्योंकि माता आदि भिन्न संतान के अभ्यास से अन्य किसी बालक आदि में प्रत्यभिज्ञान की उत्पत्ति मानोगे तो अतिप्रसंग उपस्थित होगा-देवदत्त के संस्कार से उसके निकटवर्ती मित्र यज्ञदत्त आदि को भी प्रत्यभिज्ञान होने लगेगा । माता पिता को कोई वस्तु की प्राप्ति होने पर या जानने पर “मेरे को ही यह सब प्राप्त हुआ" इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान सभी बालकों को हो जायेगा तथा कभी ऐसा भी होवेगा कि एक माता पिता के अनेक बालकों में भी परस्पर में एक दूसरे के संस्कार-अभ्यास से प्रत्यभिज्ञान होने लगेगा, जैसे कि एक के ही द्वारा जाने हुए स्पर्श विषय का देखे हुए विषय के साथ जोड़ रूप ज्ञान अर्थात् प्रत्यभिज्ञान होता है कि यह वही आम है जिसका मैंने स्पर्श किया था इत्यादि, वैसे ही वह भिन्न २ व्यक्ति को भी
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