Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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आत्माप्रत्यक्षत्ववादः
३४७
सुखादीनामेव तत्कारित्वं नान्येषामित्यपि फल्गुप्रायम्, अत्यन्तभेदेऽर्थान्तरभूतप्रमारग । ह्यत्वे चात्मीयेतरभेदस्यैवासम्भवात् ।
आत्मीयत्वं हि तेषां तद्गुणत्वात्, तत्कार्यत्वाद्वा स्यात्, तत्र समवायाद्वा, तदाधेयत्वाद्वा, तददृष्टनिष्पाद्यत्वाद्वा । न तावत्तद्गुणत्वात् ; तेषामात्मनो व्यतिरेकैकान्ते 'तस्यैव ते गुरणा नाकाशादेरन्यात्मनो वा' इति व्यवस्थापयितुमशक्त ेः ।
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अनुभव में आया करते हैं इत्यादि, सो इस पर हम जैन का प्रश्न है कि सुखादिक में अपनापना किस कारण से आता है, क्या उसी विवक्षित देवदत्त आदि के वे सुखादिक गुण हैं इसलिये वे उनके कहलाते हैं अथवा उस देवदत्त का कार्य होने से, या उसी देवदत्त में उनका समवाय होने से, अथवा उसी देवदत्त में आधेयरूप से रहने से, अथवा उसी देवदत्त के भाग्य द्वारा निर्मित होने से, यदि पहिली बात स्वीकार की जाय कि उसी देवदत्त के वे सुखादिक गुण हैं अतः वे उसके कहलाते हैं सो यह बात ठीक नहीं क्योंकि वे सुखादिक जब उस विवक्षित देवदत्त से सर्वथा भिन्न हैं तो ये सुखादिक इसी देवदत्त के हैं अन्य के नहीं, अथवा आकाश आदि द्रव्यके नहीं - ऐसा उन्हें व्यव - स्थित नहीं कर सकते और न अन्य व्यक्ति में ही उन्हें व्यवस्थित कर सकते हैं । वे सुखादिक उसी एक निश्चित व्यक्ति का कार्य हैं अतः वे उसीके कहलाते हैं ऐसा दूसरा पक्ष भी बनता नहीं है, क्योंकि ये सुखादिक इसी व्यक्ति के कार्य हैं ऐसा किस हेतु से सिद्ध करोगे, यदि कहा जाय कि वे उसी व्यक्ति के होने पर होते हैं अतः उसीका वे कार्य हैं सो भी बात नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर सुखादिक आकाश के भी कार्य कहलावेंगें, कारण कि आकाश की मौजूदगी में ही सुखादिक होते रहते हैं । जैसे कि वे उस विवक्षित देवदत्त आदि के होने पर हुआ करते हैं ।
प्रभाकर - आकाश को तो सुखादिक का निमित्त कारण माना है, अतः सुखादिक की उत्पत्ति में भी वह व्यापार करे तो कोई आपत्ति नहीं ।
जैन - तो फिर आत्मा को सुखादिक का निमित्तकारण ही माना जाय ।
प्रभाकर - समवायी कारण अर्थात् उपादान कारण भी तो कोई चाहिए, क्योंकि विना समवायी कारण के कार्य पैदा नहीं होता है । अतः हम आत्मा को तो सुखादिक का उपादान कारण मानते हैं और आकाश को निमित्त कारण मानते हैं ।
जैन - यह कथन भी प्रयुक्त है, जब सुख दुःखादिक आकाश और आत्मा दोनों से पृथक् हैं तब आत्मा ही उनका उपादान है, आकाश नहीं ऐसा कहना बन नहीं
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