Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेय कमलमार्तण्डे ___ तत्कार्यत्वाच्च त्कुतस्तत्कार्यत्वम् ? तस्मिन् सति भावात् , अाकाशादौ तत्प्रसङ्गः । तस्य निमित्तकारणत्वेन व्यापाराददोषश्च त्, प्रात्मनोपि तथा तदस्तु । समवायिकारणमन्तरेण कार्यानुत्पतेरात्मनस्तत्कल्प्यते, गगनादेस्तु निमित्तकारणत्वमित्यप्ययुक्तम् ; विपर्ययेणापि तत्कल्पनाप्रसङ्गात् । प्रत्यासत्तेरात्मैव समवायिकारणं चेन्न; देशकालप्रत्यासत्तेनित्यव्यापित्वेनात्मवदन्यत्रापि समानत्वात् । योग्यतापि कार्ये सामर्थ्य म्, तच्चाकाशादेरप्यस्तीति । अथात्मन्यात्मनस्तज्जननसामर्थ्य नान्यस्येत्यप्ययुक्तम् ; अत्यन्तभेदे तथा तज्जननविरोधात् । तत्सामर्थ्यस्या प्यात्मनोऽत्यन्तभेदे 'तस्य वेदं नान्यस्य'
सकता क्योंकि ऐसा मानने में विपरीत कल्पना भी तो आ सकती है । अर्थात् आकाश सुख आदि का उपादान और प्रात्मा निमित्त है ऐसा भी मान लिया जा सकता है।
प्रभाकर-प्रत्यासत्ति एक ऐसी है कि जिससे आत्मा ही उनका उपादान होता है अन्य आकाश आदि नहीं ।
जैन-ऐसा कहना भी शक्य नहीं, क्योंकि आपके मत में जैसा आत्मा को व्यापक तथा नित्य माना है उसी प्रकार आकाश को भी व्यापक और नित्य माना गया है, अतः हर तरह की देश-काल आदि की प्रत्यासत्ति-निकटता तो उसमें भी रहती ही है, तब यह कैसे माना जा सकता है कि उनका उपादान प्रात्मा ही है आकाश आदि नहीं । यदि योग्यता को प्रत्यासत्ति कहते हो और उस योग्यतारूप प्रत्यासत्ति के कारण उपादान आदि का नियम बन जाता है ऐसा कहा जाय तो जचता नहीं, देखो-कार्य की क्षमता होना योग्यता है और ऐसी योग्यता आकाश में भी मौजूद है।
प्रभाकर-अपने में ही अपने सुख दुःख आदि को उत्पन्न करने की सामर्थ्य हुमा करती है, अन्य के सुखादि की नहीं ।
जैन-यह कथन अयुक्त है । यदि अपने से अपने सुख दुःख आदि अत्यंत भिन्न हैं तो उसमें ऐसा अपने सुखदुःखादि को उत्पन्न करने का विरोध आता है, तथा अपना या देवदत्त आदि व्यक्ति का सुख आदि को उत्पन्न करने का सामर्थ्य भी सर्वथा भिन्न है, फिर कैसे विभाग हो सकता है कि ये सुखादि इसी देवदत्त के हैं अथवा यह सामर्थ्य इसी व्यक्ति की है । अर्थात् सर्वथा पृथक् वस्तुओं में इस प्रकार विभाग होना अशक्य है । आप लोग समवाय सम्बन्ध से ऐसी व्यवस्था करते हो-किन्तु समवाय का हम आगे खंडन करने वाले हैं। अतः समवाय सबंध के कारण देवदत्त के सुख या सामर्थ्य आदि देवदत्त में ही रहते हैं इत्यादि व्यवस्था होना संभव नहीं है, इस प्रकार
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