Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
सिद्धत्वात्तस्याः कथमनुमापकत्वम् ? न खलु ज्ञानस्वभावाविशेषेपि 'ज्ञप्तिः प्रत्यक्षा न करणज्ञानम्' इत्यत्र व्यवस्थानिबन्धनं पश्यामोऽन्यत्र महामोहात् । शब्दमात्रभेदाच्च सिद्धासिद्धत्वभेदः स्वेच्छापरिकल्पितोऽर्थस्याभिन्नत्वात् । ज्ञानत्वेन हि प्रत्यक्षताविरोधे ज्ञप्तावपीयं न स्यादविशेषात् । अथार्थस्वभावा ज्ञप्तिः तदार्थप्राकटय सा, न चैतदर्थ ग्राहक विज्ञानस्यात्माधिकरणत्वेनापि प्राकटयाभावे घटते,
अर्थज्ञप्ति तो प्रत्यक्ष स्वरूप है और करणज्ञान परोक्ष स्वरूप है । देखिये - यदि आप करणज्ञान में ज्ञानपना होने से प्रत्यक्षतास्वभाव का विरोध करते हो तो अर्थज्ञप्ति में भी इस प्रत्यक्षता का विरोध मानना पड़ेगा, क्योंकि दोनों में-करणज्ञान और ज्ञप्ति में ज्ञानत्व तो समान ही है, कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार अर्थज्ञप्ति ज्ञान स्वभाववाली है यह नहीं सिद्ध हो सकने के कारण उस अर्थजप्ति स्वरूप हेतुवाले अनुमान प्रमाण से ज्ञान का सद्भाव सिद्ध करना बनता नहीं है । अब यदि उस अनुमान के हेतु को अर्थ स्वभाववाली ज्ञप्ति स्वरूप मानते हो तो क्या दोष आते हैं सो बताते हैंअर्थज्ञप्ति यदि अर्थस्वभाव है तो वह अर्थप्राकट्यरूप अर्थात् अर्थ को प्रत्यक्ष करने स्वरूप होगी, और ऐसा अर्थप्राकटय तबतक नहीं बनता कि जबतक पदार्थों को ग्रहण करनेवाले करणज्ञान में प्राकटय-(प्रत्यक्षता)-सिद्ध नहीं होता है । मैं जीव इस करणज्ञान का आधार हूं इत्यादिरूप से जबतक ज्ञान, प्रत्यक्ष नहीं होगा तबतक ज्ञानसे जाना हमा पदार्थ उसे कैसे प्रत्यक्ष होगा ? अर्थात् नहीं हो सकेगा, यदि ज्ञान के प्रत्यक्ष हुए विना ही अर्थप्राकटय होता है तो अन्य किसी देवदत्त के ज्ञान से यज्ञदत्त को पदार्थों का प्रत्यक्ष होना भी मानना पड़ेगा, क्योंकि जैसे अपना ज्ञान परोक्ष है, वैसे ही दूसरों का ज्ञान भी परोक्ष है, ज्ञानका अपने में अधिकरणरूप रूप से बोध नहीं होगा-ज्ञान स्वयं अज्ञात ही रहेगा ऐसा कहोगे तो एक बड़ा भारी दोष प्राता है, देखिये-ज्ञान कैसा और कहां पर है इस प्रकार ज्ञान के बारे में यदि जानकारी नहीं है तो जब ज्ञान वस्तुको जानेगा तब प्रात्मा में उसका अनुभव नहीं हो सकेगा कि मैंने यह पदार्थ जाना है । इत्यादि । एक बात और भी है कि पदार्थों में होनेवाली प्रकटता या प्रत्यक्षता तो सर्वसाधारण हुआ करती है अर्थात् सभी को होती है, उस अर्थप्राकटयरूप हेतु से तो अन्य अन्य सभी प्रात्मानों के ज्ञानों का अनुमान होगा न कि अपने खुद के ज्ञान का। मतलब --पदार्थों की प्रकटता को देखकर अपने में ज्ञान का सद्भाव करने वाली जो अनुमानप्रमाण की बात थी वह तो बेकार ही होती है, क्योंकि उससे अपने में ज्ञान का सद्भाव सिद्ध करना शक्य नहीं है ।
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