Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
सन्निकर्षसमये रूपादिज्ञानवन्मानसं सुखादिज्ञानं किन्न स्यात् सम्बन्धसम्बन्धसद्भावात् । तथाविधादृष्टस्याभावाचे त् ; अदृष्ट कृता तहि युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिस्तदेवानुमापयेन्न मनः ।
किञ्च, 'युगपद् ज्ञानानुत्पत्तेर्मनःसिद्धिस्ततश्चास्याः प्रसिद्धिः' इत्यन्योन्याश्रयः । चक्रकप्रसङ्गश्च -'विज्ञानसिद्धिपूर्विका हि युगपद् ज्ञानानुत्पत्तिसिद्धिः, तसिद्धिर्मनःपूविका' इति । तस्मात्तत्सहकारि प्रगुणं मनो लिङ्गमित्यप्यसिद्धम् ।
जैन- यह कथन ठीक नहीं है, घटपट प्रादि में भी क्रम से ही ज्ञान होगा, क्योंकि आप एक साथ अनेकज्ञान होना मानते नहीं । एक बात हम जैन आप-(मीमांसक) से पूछते हैं कि आपका वह अतिसूक्ष्म मन जब नेत्र आदि इन्द्रियों में से किसो एक इन्द्रिय के साथ संबंध करता है उस समय उसके द्वारा जैसे रूपादि का ज्ञान होता है वैसे ही उसी नेत्र ज्ञान के साथ मानसिक सुख आदि का ज्ञान भी क्यों नहीं होता है ? क्योंकि संबंध संबंध का सद्भाव तो है ही, अर्थात् मन का आत्मा से संबंध है और उसी आत्मा में सुखादिका समवाय संबंध है, अत: रूप आदि के साथ मानसिक सुखादिका भी ज्ञान होना चाहिये ।
मीमांसक-उस तरह का अदृष्ट नहीं है, अत: नेत्र आदि का ज्ञान और मानसिक सुखादि ज्ञान एक साथ नहीं हो पाते हैं ।
जैन-तो फिर एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होने में अदृष्टकारण हुआ, मन तो उसमें हेतु नहीं है, फिर युगपत् ज्ञानानुत्पत्ति मन लिङ्ग न होकर अदृष्ट का होगा । और वह हेतु अदृष्ट का ही अनुमापित करानेवाला होगा कि एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि ऐसा अदृष्ट ही नहीं कि जिससे एक साथ अनेक ज्ञान पैदा हो सकें। किंच-एक साथ अनेकज्ञान नहीं होने में मन कारण है ऐसा मान लेवें तो भी अन्योन्याश्रय दोष आता है । देखिये - एक साथ अनेक ज्ञान पैदा नहीं होते हैं ऐसा सिद्ध होने पर तो मन की सिद्धि होगी; और मन के सिद्ध होने पर युगपत् ज्ञानानुत्पत्ति सिद्ध होगी। चक्रक दोष भी आता है-जब करण ज्ञान का सद्भाव सिद्ध हो तब उसके एक साथ अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति नहीं होना सिद्ध होगा और उसके सिद्ध होने पर मन की सिद्धि होगी, फिर उससे करणज्ञान की सिद्धि होगी, इस प्रकार तीन के चक्र में चक्कर लगाते रहने से एक की भी सिद्धि होना शक्य नहीं है । इसलिये ज्ञानका सद्भाव सिद्ध करने में दिया गया इन्द्रियार्थ सहकारी मन रूप हेतु असिद्ध हेत्वाभास दोष युक्त हुआ।
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