Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अचेतनज्ञानवादः
स्यान्मतम् – न ज्ञानं स्वव्यवसायात्मकमचेतनत्वाद् घटादिवत् । तदचेतनं प्रधानविवर्त्त - त्वात्तद्वत् । यत्तु चेतनं तन्न प्रधानविवर्त:, यथात्मा; इत्यप्यसङ्गतम् ; तस्यात्मविवर्त्तत्वेन प्रधानविवत्वसिद्ध ेः; तथाहि ज्ञानविवर्त्त' वानात्मा दृष्टृत्वात् । यस्तु न तथा स न द्रष्टा यथा घटादिः, द्रष्टा चात्मा तस्मात्तद्विवर्त्तवानीति । प्रधानस्य ज्ञानवत्त्वे तु तस्यैव द्रष्टृत्वानुषङ्गादात्मकल्पनानर्थक्यम् ।
अब यहां पर सांख्य कहते हैं कि ज्ञान स्वपरव्यवसायात्मक नहीं है क्योंकि वह अचेतन है, जैसे घट पट आदि पदार्थ प्रचेतन होने से अपने को नहीं जानते हैं । ज्ञान को हम अचेतन इसलिये मानते हैं कि वह प्रधान की पर्याय है, प्रधान स्वतः अचेतन है, अतः उसकी पर्याय भी अचेतन ही रहेगी, जो चेतन होगा वह प्रधान की पर्याय नहीं होगा, जैसे श्रात्मा चेतन है, अतः वह प्रधान की पर्याय नहीं है ।
जैन - यह कथन असंगत है, ज्ञान तो साक्षात् आत्मा की पर्याय है, उसमें तो प्रधानपने का अंश भी नहीं है, देखिये - आत्मा ज्ञानपर्याय वाला है क्योंकि वह दृष्टा है, जो ज्ञाता नहीं होता वह द्रष्टा भी नहीं हो सकता जैसे कि घट आदि जड़ पदार्थ, आत्मा द्रष्टा है अतः वह अवश्य ही ज्ञान पर्याय वाला है, आप प्रधान को ज्ञानवान् मानोगे तो उसीको द्रष्टा भी कहना पड़ेगा, फिर तो ग्रात्मद्रव्य की कल्पना करना व्यर्थ हो जावेगा । जिस प्रकार श्रात्मा में "मैं चेतन हूँ" इस प्रकार का अनुभव होता है, अतः वह चेतन स्वभाव वाला माना गया है, उसी प्रकार " मैं ज्ञाता हूं" इस प्रकार का भी ग्रात्मा में अनुभव होता है अतः उसे ज्ञानस्वभाव वाला भी मानना चाहिये, इसमें और उसमें कोई विशेषता नहीं है ।
सांख्य- ज्ञान के संसर्ग से "मैं ज्ञाता हूं" इस प्रकार आत्मा में प्रतिभास होता है, न कि ज्ञान स्वभाववाला होने से मैं ज्ञाता हूं ऐसा प्रतिभास होता है ?
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