Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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भूत चैतन्यवादः
३०१
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नाप्यनुमानेन अस्य प्रामाण्याप्रसिद्ध ेः । न च तद्भावावेदकं किञ्चिदनुमानमस्ति इत्यसङ्गतम् ; प्रत्यक्षेणैवात्मनः प्रतोते। 'सुरुयहं दुःख्यहमिच्छावानहम्' इत्याद्यनुपचरिताहम्प्रत्ययस्यात्मग्राहिणः प्रतिप्रारिण संवेदनात् । न चायं मिथ्याऽबाध्यमानत्वात् । नापि शरीरालम्बनः; बहिःकरण निरपेक्षान्तःकरणव्यापारेणोत्पत्त ेः । न हि शरीरं तथाभूतप्रत्ययवेद्य बहिः कररणविषयत्वात् तस्यानुपचरिताहम्प्रत्ययविषयत्वाभावाच । न हि 'स्थूलोऽहं कृशोहम्' इत्याद्यभिन्नाधिकरणतया प्रत्ययोऽनुपचरितः; अत्यन्तोपकारके भृत्ये 'श्रहमेवायम्' इति प्रत्ययस्याप्यनुपचरितत्वप्रसङ्गात् । प्रतिभासभेदो बाधकः अन्यत्रापि समानः । न हि बहलतमः पटलपटावगुण्ठितविग्रहस्य 'ग्रहम्' इति प्रत्ययप्रतिभासे स्थूल
किये बिना ही इस प्रकार के
जैन - यह बात असंगत है, आत्मा तो प्रत्यक्ष से प्रतीति में आ रहा है- "मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, मैं इच्छावाला हूं" इत्यादि सर्वथा उपचाररहित सत्यभूत अहं प्रत्यय से आत्मा प्रत्येक प्राणियों को प्रतीति में श्रा रहा है, वह प्रतीति मिथ्या तो बिलकुल ही नहीं है, क्योंकि यह अबाधित है, यह अहं प्रत्यय शरीर में तो होता नहीं है, क्योंकि बाह्य जो नेत्र प्रादिक इन्द्रियां हैं; उनकी अपेक्षा वह अन्तःकरण के व्यापार से उत्पन्न हुए ज्ञान से वेद्य होता है, शरीर ज्ञान से वेद्य नहीं होता है, क्योंकि उसका वेदन सो बाहिरी इन्द्रियों से होता है, नेत्र प्रादि से वह दिखाई देता है, ऐसे इस शरीर में अनुपचरित अर्थात् उपचार रहित वास्तविक रूप से प्रहंपने की प्रतीति हो नहीं सकती । कोई कहे कि शरीर में भी " मैं कृश हूं, मैं स्थूल हूं" इत्यादि रूप अहं प्रत्यय होता है सो भी बात नहीं, यह प्रत्यय अहंपने का अनुकरण जरूर करता है किन्तु यह अनुपचरित तो नहीं है, ऐसे अहंपने को वास्तविक कहोगे तो प्रत्यन्त उपकारक निकटवर्ती नौकर के विषय में भी स्वामी को "मैं ही यह हूं" ऐसा अपना पाया जाता है, सो उसे भी अनुपचरित मानना पड़ेगा ।
चार्वाक- - इस नौकर आदि में तो प्रतिभास का भेद दिखता है ।
जैन - तो फिर वैसे ही शरीराधार प्रहंप्रत्यय भी प्रतिभास भेदवाला है, अर्थात् आत्मा में होनेवाला अहंप्रत्यय वास्तविक है एवं शरीर में होनेवाला श्रहंप्रत्यय काल्पनिक है ऐसा सिद्ध होता है, देखो - बहुत गाढ अन्धकार से अवगुंठित शरीरवाले पुरुष को अपने का ज्ञान होता है उस प्रतिभास में स्थूल आदि धर्मवाला शरीर तो प्रतीत होता ही नहीं है । बात यह है कि उपचार विना निमित्त के होता नहीं, अत: आत्मा का उपकारक होने से शरीर में भी उपचार से अहंपना प्रतीत हो जाता है,
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