Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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भूतचैतन्यवादः
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न तद्गुणो यथा पटविनाशेपि घटरूपादि, भवति चेन्द्रियविनाशेपि स्मरणादिकम्, तस्मान्न तद्गुणः । यदि चेन्द्रियगुणश्चैतन्यं स्यात्तहि करणं विना क्रियायाः प्रतीत्यभावात् करणान्तर्भवितव्यम् । तेषां च प्रत्येकं चैतन्यगुणत्वे एकस्मिन्न व शरीरे पुरुषबहुत्वप्रसङ्गः स्यात् । तथाच देवदत्तोपलब्धेऽर्थे यज्ञदत्तस्येवेन्द्रियान्तरोपलब्धे तस्मिन् न स्यादिन्द्रियान्तरेण प्रतिसन्धानम् । दृश्यते चैतत्ततो नेन्द्रियगुणश्चैतन्यम् । अथैकमेवेन्द्रियमशेषकरणाधिष्ठायकमिष्यतेऽतोयमदोषः; तहिं संज्ञाभेदमात्रमेव स्यादात्मनस्तथा नामान्तरकरणात् ।
__ नापि चैतन्यगुणवन्मनः करणत्वाद्वास्यादिवत् । कर्तृत्वोपगमे तस्य चेतनस्य सतो रूपाद्य प. लब्धो करणान्तरापेक्षित्वे च प्रकारान्तरेणात्मवोक्ता स्यात् । भी नहीं रहा, अत: अन्य किसी को करण बनाना पड़ेगा, तथा अन्य करणभूत जो भी वस्तुएं प्रावेगी उनका भी एक एक का चैतन्य गुण रहेगा ही, ऐसी हालत में एक ही शरीर में अनेक पुरुष ( जीव ) या चैतन्य मानने का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। इस तरह से बहुत ही अधिक गड़बड़ी मचेगी, देवदत्त के जाने गये किसी एक विषय में उसी की अन्य इन्द्रिय से प्रतिसंधान नहीं हो सकेगा, क्योंकि अन्य इन्द्रिय का चैतन्य पृथक् है, जैसे कि यज्ञदत्त की इन्द्रिय देवदत्त से पृथक् है ।
. भावार्थ-जब एक शरीर में अनेक पृथक् २ चैतन्यगुण वाली इन्द्रियां स्वीकार करोगे तो एक ही देवदत्त के द्वारा जाने हुए पदार्थ में उसी की रसना आदि इन्द्रियां प्रवृत्त होने पर भी संबंध नहीं जोड़ सकेगी, कि यह वही आम का मीठा रस है जिसे कि आंख से पीले रंग युक्त जाना था, नेत्र के द्वारा देखे हुए वीणा आदि वाद्य के शब्द का कर्ण के द्वारा प्रतिसंधान नहीं होगा, क्योंकि सब के चैतन्य गुण पृथक् २ हैं, जैसे कि अन्य पुरुष-यज्ञदत्त के द्वारा जाने हुए विषय में हमारी इन्द्रियां प्रतिसंधान नहीं कर पाती वैसे ही खुद की हो इन्द्रियों से प्रतिसंधान होना अशक्य हो जायगा, हमारी इन्द्रियों द्वारा प्रतिसंधान तो अवश्य ही होता देखा जाता है, अत: निश्चित होता है कि चैतन्य इन्द्रियों का गुण नहीं है।
चार्वाक- संपूर्ण करणभूत इन्द्रियोंका अधिष्ठायक अर्थात् प्रेरक या आधारभूत एक विशेष इन्द्रिय स्वीकार करने पर कोई दोष नहीं आता है अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्रतिसंधान न होना इत्यादि आपत्ति नहीं रहती है।
जैन-तो फिर आपने नाममात्र का भेद किया-अर्थात् आत्मा का ही नाम "इन्द्रिय" इस प्रकार धर दिया, अर्थभेद तो कुछ रहा वहीं, मन भी चैतन्य गुणवाला
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