Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अचेतनज्ञानवाद:
२६६ भूयमानेप्यन्यसद्भावाशङ्कया क्वचित्प्रवृत्त्याद्यभावात् । ततोऽबाधितैकत्वप्रतिभासादपरपरिहारेणावभासमाने वस्तुन्येकत्वव्यवस्थामिच्छता अनुभवसिद्धकर्तृत्वभोक्त त्वाद्यनेकधर्माधारचिद्विवर्त्तस्याप्येकत्वमभ्युपगन्तव्यं तद विशेषात् । न चात्रैकत्वप्रतिभासे किञ्चिद्बाधकम्, यतो द्विचन्द्रादिप्रतिभासवन्मिथ्यात्वं स्यात् । स्वसंवेदनप्रसिद्धस्वपरप्रकाशरूपचिद्विवर्त्तव्यतिरेकेणान्यचैतन्यस्य कदाचनाप्यप्रतीतेः । न चोपदेशमात्रात्प्रेक्षावतां निधिबोधाधिरूढोऽर्थोऽन्यथा प्रतिभासमानोऽन्यथापि कल्पयितुयुक्तोऽति
सकेगा, फिर तो कहीं इष्ट भोजन स्त्री आदि वस्तुओं को देखकर उसमें भी सर्प, विष आदि की शंका के कारण लेना, खाना आदि रूप प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी।
इस प्रकार यह निश्चय हुआ कि जहां अबाधितपने से एकपने का प्रतिभास है, अन्य वस्तु का परिहार करके एकत्व प्रतीत हो रहा है वहां पर एकरूप एक ही वस्तु को मानना, इस तरह की वस्तु व्यवस्था को चाहते हुए सभी को अनुभव से जिसकी सिद्धि है ऐसे कर्तृत्व भोक्त त्व आदि अनेक धर्मों का आधार ऐसा एक चैतन्य है उस चैतन्य का ही धर्म बुद्धि है, इसी का नाम ज्ञान है । इस प्रकार मानना चाहिये, क्योंकि चैतन्य और बुद्धि में कोई आधार आदि का पृथक्पना या अन्य विशेषता नहीं देखी जाती है अर्थात् जहां पर चैतन्य का प्रतिभास है वहीं पर बुद्धि का भी प्रतिभास या उपलब्धि देखी जाती है, इन चैतन्य और बुद्धि में जो एकपना प्रतीत होता है उसमें कोई बाधा भी नहीं आती है, जब बाधा नहीं है तब किस कारण से उस प्रतिभास को द्विचन्द्रादि ज्ञान के समान मिथ्या माना जाय ? अर्थात् नहीं मान सकते हैं । स्वसंवेदन ज्ञान से यह प्रसिद्ध ही होता है कि स्वपर प्रकाशरूप अर्थात् अपना और पर पदार्थों का जाननारूप ही पर्याय जिसकी है, ऐसा चैतन्य ही है, इस स्वपर प्रकाशक धर्म को छोड़कर अन्य किसी रूप से भी उस चैतन्य की प्रतीति नहीं आती है । अर्थात् चैतन्य को छोड़कर बुद्धि और बुद्धि को छोड़कर चैतन्य पृथकरूप से कभी भी प्रतिभासित नहीं होते हैं । किसो के उपदेश या प्रागममात्र से बुद्धिमान व्यक्ति निर्बाधज्ञान में प्रतिभासित हुए पदार्थ को विपरीत नहीं मान सकते हैं । अर्थात् किसी के काल्पनिक उपदेश से प्रत्यक्ष प्रतीति में आये हुए पदार्थ को अन्य का अन्यरूप मानना युक्त नहीं होता है, अन्यथा अतिप्रसंग पाता है। चैतन्य स्वरूप पुरुष ही जब अपना और पदार्थों का प्रकाशन-जानना रूप कार्य करता हुमा उपलब्ध हो रहा है तब उससे बुद्धि को पृथक् मानने में क्या प्रयोजन है और उस बुद्धि युक्त प्रधान तत्त्व की कल्पना भी किसलिये की जाय ? अर्थात् आत्मा से बुद्धि को भिन्न मानने में कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं
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