Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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२८.
प्रमेयकमलमार्तण्डे
जडतां प्रतिपद्यते, ज्ञानान्तरं वा ? आद्य विकल्पे नीलाकारतां स्वात्मभूततया, जडतां त्वन्यथा तज्जानातीत्यर्द्ध जरतीयन्यायानुसरणं ज्ञानस्य । अथ ज्ञानान्तरेण सा प्रतीयते; तदप्यतदाकारं यथा जडतां प्रतिपद्यते तथाद्य (द्य)नीलतामिति व्यथं तदाकारकल्पनम् ।
किञ्च, ज्ञानान्तरेण जडतैव केवला प्रतीयते, तद्वन्नीलतापि वा ? न तावदुत्तरपक्षः; अर्द्ध जरतीयन्यायानुसरणप्रसङ्गात् । प्रथमपक्षे तु नीलताया जडतेयमिति कुतः प्रतीति: ? नाद्यज्ञानात् ; तेन
और उसी वस्तु के जड़ धर्म को अजडाकार होकर ही जानता है, अतः यह अर्धजरती न्याय हुआ ।। द्वितीय पक्ष के अनुसार यदि वस्तु के नीलत्व को जानने वाले ज्ञान से पृथक् कोई दूसरा ज्ञान है और वह उस वस्तु के जडत्व को जानता है ऐसा कहा जाय तो भी प्रश्न होगा कि वह भिन्न ज्ञान भी जडता को जडताकार होकर ग्रहण करता है या विना जडताकार हुए ग्रहण करता है, यदि विना जडताकार हुए जड़ता को जानता है तो नीलत्व को भी विना नीलाकार हुए जानें, क्यों व्यर्थ ही तदाकारता की कल्पना उसमें करते हो।
किञ्च-अन्य जान से जो जड़ता को जानना तुमने स्वीकार किया है सो वह ज्ञानान्तर एक मात्र जड़ता को ही जानता है कि जड़ता के साथ नीलाकार को भी जानता है ? जड़ता से युक्त नीलत्व का ग्रहण अर्थात् यह जड़ता इस नील की है यदि ऐसा वह ज्ञानान्तर जानता है तो इस उत्तर पक्ष में पहिले के समान अर्धजरती न्याय का अनुसरण होने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है क्योंकि पदार्थ के नीलत्व को छोड़ उसका अर्धांश जो जड़ता है उसी को तो इसने जाना है । मात्र जड़त्व के जानने की बात तो बिलकुल बनती ही नहीं है, क्योंकि उस प्रतिभास में यह नील पदार्थ की जड़ता है इस प्रकार की प्रतीति तो होगी नहीं, तो फिर उसे किस ज्ञान से जाना जायगा ? प्रथम ज्ञान तो जानेगा नहीं क्योंकि वह तो सिर्फ नीलाकार को ही जान रहा है। दूसरा ज्ञानान्तर भी जान नहीं सकता, क्योंकि उसका विषय भी तो मात्र जड़धर्म है, यदि इन दोनों को छोड़कर एक तीसरा ज्ञान नील और जड़ता को जानने वाला स्वीकार किया जाये तो उसमें भी निर्णय करना होगा कि वह तृतीय ज्ञान दोनों प्राकारों को धारता है क्या ? यदि धारता है तो ज्ञान स्वयं जड़ बन जायगा, यदि तृतोयज्ञान को निराकार मानते हो तब तो स्पष्ट ही जैन मत का अनुसरण करना हो गया। कहीं पर नील आदि में ज्ञान साकार रहता है अन्यत्र नहीं ऐसा कहो तो वही पूर्वोक्त अनवस्था दोष आता है कि एक ज्ञान नीलत्व को जानेगा
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