Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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साकारज्ञानवाद:
२७६
कारस्याप्यग्रहणम् अन्यथा तयोर्भेदोऽनेकान्तो वा ! नीलाकारग्रहणेपि च प्रगृहीता जडता कथं तस्येत्युच्येत ? अन्यथा गृहीतस्य स्तम्भस्यागृहीतं त्रैलोक्य (क्यं ) रूपं भवेत् । तथा चैकोपलम्भो नैकत्वसाधनम् । अथ नीलाकारवज्जडतापि प्रतीयते किन्त्वतदाकारेण ज्ञानेन, न तहि नीलताप्यतदाकारेणैवानेन प्रतीयताम् । तथाहि - यद्य ेन स्वात्मनोऽर्थान्तरभूतं प्रतीयते तत्त नातदाकारेण यथा स्तम्भादेर्जाड्यम्, प्रतीयते च स्वात्मनोऽर्थान्तरभूतं नीलादिकमिति । किञ्च, नीलाकारमेव ज्ञानं
धर्म अग्राह्य हो जाता है, यदि कहा जावे कि ज्ञान सिर्फ नील को ही जानता है। जड़ता को नहीं तो वह ज्ञान "इस नील पदार्थ की यह जड़ता है" इस प्रकार कैसे कह सकेगा, यदि उसे विना जाने ही वह नील पदार्थ ग्राहक ज्ञान यह उसका धर्म है ऐसा कहता है तो ग्रहण किये गये स्तम्भ का अग्रहीत त्रैलोक्य स्वरूप हो जायगा, इस तरह कहीं पर भी एकत्व का साधक ज्ञान नहीं हो सकेगा प्रत्युत वह एक ही में अनेकत्व का साधक होगा ।
बौद्ध जैसे ज्ञान वस्तु की नीलाकारता को जानता है वैसे ही वह उसकी जड़ता को भी जानता है, परन्तु जड़ता को वह तदाकार होकर नहीं जानता है ।
जैन - यह बात गलत है क्योंकि जड़ता को जैसे तदाकार हुए विना जान लेता है वैसे ही वह नीलाकार हुए बिना ही नील पदार्थ को भी जान लेवे तो इसमें क्या बाधा है । अनुमान से भी सिद्ध होता है कि जो वस्तु जिसके द्वारा अपने से पृथक् रूप से जानी जाती है वह उससे प्रतदाकाररूप होकर ही जानी जाती है, जैसे कि स्तम्भ आदिके जड़पने को स्तम्भज्ञान प्रतदाकार होकर जानता है, इसी तरह अपने से अर्थात् नोलज्ञान से नील आदि पदार्थ पृथक् प्रतीत होते ही हैं, अतः वे तदाकार हुए अपने ज्ञान द्वारा गृहीत नहीं होते हैं । पुनः आपसे हम पूछते हैं कि ज्ञान जो जड़ धर्म को जानता है वह कौनसा ज्ञान जानता है ? क्या नीलाकार हुआा ज्ञान ही जड़ धर्म को जानता है ? अथवा भिन्न कोई ज्ञान जड़ धर्म को जड़ता को जानता है ? यदि नीलाकार हुआ ज्ञान ही जड़ता को जानता है ऐसा प्रथम पक्ष लेकर कहा जावे तो ठीक नहीं है, क्योंकि नीलको तो वह नीलाकार होकर जाने और जड़ता को विना जड़ताकार हुए
यह तो ज्ञान में अर्धजरती न्याय हुआ ।। भावार्थ - " प्रधं मुख मात्रं वृद्धायाः कामयते नांगानि सोऽयमर्धजरती न्याय: " अर्थात् जैसे कोई कामी जन वृदुध स्त्री के मुखमात्र को तो चाहे अन्य अवयवों को नहीं चाहे इसी प्रकार यहां पर बौधों ने ज्ञान के विषय में ऐसा ही कहा है कि ज्ञान वस्तु के नील धर्म को तो नीलाकार होकर जानता है
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