Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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भूतचैतन्यवादः
नन्वस्तु निराकारत्वं विज्ञानस्य ; न तु स्वसंविदितत्वं भूतपरिणामत्वादर्पणादिवदित्यप्ययुक्तम् ; हेतोरसिद्ध :। भूतपरिणामत्वे हि विज्ञानस्य बाह्य न्द्रियप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गो दर्पणादिवत् । सूक्ष्मभूतविशेषणपरिणामत्वान्न तत्प्रसङ्गः; इत्यप्यसङ्गतम् ; स हि चैतन्येन सजातीयः, विजातीयो
यहां पर चार्वाक जैन से कहता है कि आपने बौद्ध के साकार ज्ञानका खंडन करके निराकार ज्ञान सिद्ध किया यह बहुत ठीक हुआ, किन्तु उस ज्ञान को आप स्वसंविदित मानते हैं सो वह युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञान भूततत्त्व का ( अचेतन का ) परिणमन है, जैसे कि दर्पण आदि पदार्थ ।
जैन-यह चार्वाक का कथन चारु नहीं है, क्योंकि उनका प्रस्तुत किया हुग्रा भूतपरिणामत्व असिद्ध है, यदि ज्ञान भूतों का परिणामस्वरूप होता तो उसका दर्पण के समान बाह्य इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष ग्रहण हो जाता; किन्तु वह किसी से ग्रहण नहीं होता।
चार्वाक-ज्ञान अतिसूक्ष्म भूतों का परिणमन स्वरूप है, अतः वह बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण में नहीं आता है । .
जैन-यह कथन भी ठीक नहीं है, हम आपसे पूछते हैं कि वह सूक्ष्म भूत चैतन्य का सजातीय होकर कि विजातीय होकर ज्ञान का उपादान कारण होता है ? यदि सूक्ष्मभूत चैतन्य का सजातीय होकर वह उसका उपादान कारण होता है तो इस पक्षमें सिद्ध साध्यता ही होगी, क्योंकि इस प्रकार को मान्यता सिद्ध को ही सिद्ध करती है, आप उसे सूक्ष्मभूत कहते हो हम जैन उसी को प्रात्मा कहते हैं । वह अचेतन द्रव्य से भिन्न स्वभाववाला है, रूप, रस, आदि से रहित है एवं सर्वदा बाह्य नेत्र आदि इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकने वाला है । केवल स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ही उसका ग्रहण
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