Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
जिस प्रकार पाहार समय आदि अनेक कारण बालक के जन्म में समानरूप से निमित्त हुआ करते हैं किन्तु उन सबमें से माता या पिता इन दो में से किसी एक के आकार-शकल को बालक धारण करता है, अन्य कारण का आकार वह धारण नहीं करता, ठीक इसी प्रकार ज्ञान इन्द्रिय पदार्थ आदि कारणों से उत्पन्न होते हुए भी इनमें से पदार्थ के ही प्राकार को धारण करता है, इन्द्रियादि के आकार को नहीं।
खास बात तो यही है कि यदि ज्ञान को निराकार माना जावे तो प्रतिकर्म व्यवस्था समाप्त हो जाती है, कहा भी है
"किमर्थं तर्हि सारूप्यमिष्यते प्रमाणम् ? क्रियाकर्म व्यवस्थायास्तल्लोके स्यान्निबंधनम्......
सारूप्यतोऽन्यथा न भवति नीलस्य कर्मण: संवित्तिः पीतस्य वेति क्रियाकर्म प्रतिनियमार्थं इष्यते" ।। प्रमाणवातिकालंकार पृ० ११६
यदि कोई पूछे कि बौद्ध ज्ञान को साकार क्यों मानते हैं तो उसका उत्तर यही है कि पदार्थ की प्रतीति की पृथक् २ व्यवस्था बिना ज्ञान के साकार हुए बन नहीं सकती, अर्थात् यह नीला पदार्थ है, यह इस नीले पदार्थ का संवेदन हो रहा है और यह पीत का संवेदन हो रहा है इत्यादि प्रतिभास रूप क्रिया और उस क्रिया का कर्म जो पदार्थ है इनकी व्यवस्था होना साकार ज्ञान के ऊपर ही निर्भर है।
स्वसंवित्तिः फलं चास्य ताद्र प्यादर्थ निश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥
__-प्रमाण समुच्चय १।१० तदाकार होने से ज्ञान के द्वारा पदार्थ का निश्चय हुमा करता है । उस ज्ञान का फल तो स्व का अपना संवेदन होना मात्र ही है, इसी प्रकार प्रमाण की प्रामाणिकता विषयाकार होना साकार होने से हो निश्चित की जाती है ।
इस प्रकार के इन उपर्युक्त कथनों से सिद्ध होता है कि ज्ञान साकार है, जिस वस्तु को वह जानता है वह उसी से पैदा होकर उसी के आकार वाला हुआ करता है।
* पूर्वपक्ष समाप्त *
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