Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रतीति: ? इत्यप्यचोद्यम् ; उत्पत्त्यनन्तरमेव तद्विनाशाप्रतीतेः । किञ्चिद्धयोपाधिकं वस्तुरूपमुपाध्यपायानन्तरमेवापति, यथा जपापुष्पसन्निधानोपनीतस्फटिकरक्तिमा । किञ्चित्तु कालान्तरे, मनोज्ञाङ्गनादिविषयोपनीतात्मसुखादिवत् । सकलभावानां स्वतोऽन्यतश्च निवर्तनप्रतीते: । तन्नाग्न्ययोगोलकयोर्भेदः ।
तद्वदिहाप्येकस्मिन् स्वपरप्रकाशात्मपर्यायेऽनुभूयमाने नान्यसद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा न क्वचिदेकत्वव्यवस्था स्यात् । सकलव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गश्च; अनिष्टार्थपरिहारेणेष्ट वस्तुन्येकस्मिन्ननुपरिणमन स्वतः और पर से भी होता है, इस प्रकार अग्नि और लोहे का गोला इनमें सम्बन्ध के बाद कुछ समय तक भेद नहीं रहता है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ-सांख्य का कहना है कि बुद्धि या ज्ञान प्रात्मा का धर्म नहीं है वह तो प्रधान-जड़ का धर्म है, उस धर्म का प्रात्मा से संसर्ग होता है, इसलिये आत्मा में ज्ञान है ऐसा मालूम पड़ता है । संसर्ग के कारण ही पात्मा में और बुद्धि में अभेद दिखाई देता है, जैसे कि लोहे का गोला अग्नि का संसर्ग पाकर अग्निरूप ही दिखता है। प्राचार्य ने उनको समझाया है कि यह अग्नि और लोहे का दृष्टान्त यहां पर फिट बैठता नहीं है, क्योंकि जिस समय लोहा अग्नि का संसर्ग करता है उस समय लोहा और अग्नि में भेद रहता ही नहीं है, मतलब-वे दोनों एक रूप ही हो जाते हैं, हम जैन आपके समान द्रव्य को कूटस्थ नित्य नहीं मानते हैं, विकारी द्रव्य की जो पर्याय जिस समय जैसी होती है द्रव्य भी उस समय वैसा ही बनता है, उस पर्याय से द्रव्य का कोई न्यारा अस्तित्व नहीं रहता है । अत: अग्नि और लोहे का दृष्टान्त आत्मा और ज्ञान पर लागू नहीं होता है ।। जैसे अग्नि और लोहे का संपर्क होने पर उनमें कोई भेद नहीं रहता वह उसी अग्नि रूप ही हो जाता है, वैसे ही आत्मा और ज्ञान में भेद नहीं है एक ही वस्तु है, ज्ञान और चैतन्य एक ही स्वपर प्रकाशात्मक पर्यायस्वरूप अनुभव में आ रहा है, उसमें अन्य किसी का सद्भाव नहीं मानना चाहिये, यदि पदार्थ एक रूप दिखाई दे रहा है तो भी उसको अनेक रूप मानेंगे तो कहीं पर भी एकपने की व्यवस्था नहीं रहेगी-संपूर्ण व्यवहार भी समाप्त हो जावेगा, क्योंकि अनिष्ट वस्तु का परिहार करके किसी एक इष्ट वस्तु के अनुभव होनेपर भी शंका रहेगी कि क्या मालूम यह और कुछ दूसरी वस्तु तो नहीं है । इस तरह संशय बना रहने से कहीं पर भी अपनी इष्ट वस्तु को लेने के लिये प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी, भावार्थ-अभिन्न एक वस्तुरूप जो चैतन्य और बुद्धि है उसमें भी यदि भेद माना जाय तो किसी स्थान पर किसी भी एक वस्तु में एकत्व का निश्चय नहीं हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org