Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अचेतनज्ञानवादः
२७१ अर्थप्रत्यक्षतापि तथैवास्त्दलं तत्परिकल्पनया । अन्तःकरणप्रत्यक्षताभावे च कथं तद्गतार्थ बिम्बग्रहणम् ? न ह्यादर्शाग्रहणे तद्गतार्थप्रतिबिम्बग्रहणं दृष्टम् ।
विषयाकारधारित्वं च बुद्धेरनुपपन्नम्, मूर्तस्यामूर्ते प्रतिबिम्बासम्भवात् । तथा हि-न विषयाकारधारिणी बुद्धिरमूर्त्तत्वादाकाशवत्, यत्तु विषयाकारधारि तन्मूत यथा दर्पणादि । न चासिद्घो हेतुः; तस्याः सकलवादिभिरमूर्त्तत्वाभ्युपगमात् । अन्यथा बाह्य न्द्रियप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गो दर्पणा
जैन - ऐसा कहना भी सदोष है, देखिये - अन्तःकरण-आत्मा का अन्दर का करण तो मन भी है पर वह बुद्धि रूप नहीं है, अत: आत्मा का अन्दर का जो करण हो वह बुद्धि है ऐसा कथन सदोष-अनैकान्तिक दोष से युक्त हो जाता है, इसी प्रकार से जो पुरुष-आत्मा का उपभोग का निकटवर्ती साधन हो वह बुद्धि है ऐसा लक्षण भी अतिव्याप्ति दोष वाला है, क्योंकि इन्द्रियां भी पुरुष के उपभोग में निकट साधन होकर भी बुद्धि रूप नहीं हैं, आप सांख्य का यदि ऐसा ही एकान्त पक्ष हो कि प्राकार वाली बुद्धि के विना पदार्थ को आत्मा कैसे जानेगा ? सो इस पक्ष पर हम जैन का कहना है कि उस आकार वाली बुद्धि को कौन जानेगा ? यदि अन्य किसी आकार वाली बुद्धि उस विवक्षित बुद्धि को जानती है तो इस मान्यता में अनवस्था आती है, यदि कहा जावे कि उस बुद्धि को जानने के लिये अन्य बुद्धि को आवश्यकता पड़ती नहीं है, वह तो आप ही प्रत्यक्ष हो जाती है, तब तो पदार्थों का प्रत्यक्ष होना भी अपने पाप से ही हो जाना चाहिये, फिर बेकार की उस जड़ बुद्धि को काहे को माना जाय । यदि कहा जावे कि बुद्धि को प्रत्यक्ष मानने की आवश्यकता नहीं तो ऐसा कहना भी युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार दर्पण को विना ग्रहण किये उसमें रहे हुए प्रतिबिम्ब को ग्रहण नहीं किया जा सकता है उसी प्रकार बुद्धिको ग्रहण किये विना पदार्थ के आकार को प्रतिबिम्ब को ग्रहण नहीं किया जा सकता-नहीं जाना जा सकता है।
बुद्धि में विषयों का सामने के बाहिरी जड़ पदार्थों का आकार आता है सो यह बात इसलिये भी नहीं युक्ति युक्त प्रतीत होती है कि ज्ञान तो-(बुद्धि तो) अमूर्त है, अमूर्त वस्तु में मूर्तिक का-विषयभूत पदार्थों का प्रतिबिम्ब-पाकार पड़ना असंभव है । अनुमान प्रमाण से यही बात सिद्ध होती है-अमूर्त होने से बुद्धि विषयों के आकार को अमूर्त आकाश की तरह धारण नहीं करती है, जो विषय के आकार को धारण करता है वह दर्पणादि की तरह मूर्तिक होता है, यहां जो अमूर्तत्व हेतु है वह असिद्ध नहीं है क्योंकि सभी वादियों ने बुद्धि को अमूर्त माना है। यदि वह मूर्तिक होती तो दर्पणादि की तरह बाह्य इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने में आती।
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