Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
४५
प्रमेयकमलमार्ताण्डे स्वविषयातिक्रमेणास्य योगजधर्मसहकारित्वेनाप्यनुग्रहायोगात्, अन्यथैकस्यैवेन्द्रियस्याशेष रसादिविषयेषु प्रवृत्तौ तदनुग्रहप्रसङ्गः स्यात् । अथैकमेवान्तःकरणं ( योगजधर्मानु )गृहीतं युगपत्सूक्ष्माद्यशेषार्थविषयज्ञानजनकमिष्यते तन्न; अणुमनसोऽशेषार्थैः सकृत्सम्बन्धाभावतस्तज्ज्ञानजनकत्वासम्भवात्, अन्यथा दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ सकृच्चक्षुरादिभिस्तत्सम्बन्धप्रसक्त रूपादिज्ञानपञ्चकस्य सकृदुत्पत्तिप्रसङ्गात्
अन्य जीव, आकाश, दिशा, काल, परमाणु, वायु, मन, तथा इन्हीं में रहने वाले गुण, कर्म, सामान्य और विशेष समवाय इन सभी वस्तुओं का उन्हें ज्ञान पैदा हो जाता है, जो योग से सहित हैं उनको योगज धर्मानुग्रह की शक्ति से युक्त चार प्रकार के सन्निकर्षों से ज्ञान होता है । यह ज्ञान इतना तीक्ष्ण होता है कि सूक्ष्म, व्यवहित तथा दूरवर्ती पदार्थों का भी साक्षात्कार कर लेता है, इस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा सूक्ष्मादिक वस्तुओं का ज्ञान होने से इन्द्रिय प्रत्यक्ष से ही वे सर्वज्ञ बन जाते हैं, ऐसी वैशेषिक ने शंका की है, इस का समाधान जैन इस प्रकार कर रहे हैं
समाधान -हम जैन आपसे यह पूछते हैं कि इन्द्रियों के जो योगजधर्म का अनुग्रह है वह क्या चीज है ? इन्द्रियां अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं सो उनमें अतिशय पैदा कर देना क्या यह योगजधर्म का अनुग्रह है ? या उनको सहकारी मात्र होना यह योगजधर्मानुग्रह है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं- क्योंकि स्वयं इन्द्रियां परमाणु आदि में प्रवृत्त ही नहीं होती हैं, फिर वह उनमें क्या अतिशय लावेगा, यदि कहो कि वे वहां प्रवृत्ति करती हैं तो फिर योगजधर्म के अनुग्रह की उन्हें क्या आवश्यकता है। योगजधर्म से युक्त होकर वे परमाणु आदि में प्रवृत्ति करती हैं ऐसा कहो तो परस्पराश्रय नामका दोष आवेगा, अर्थात् योगजधर्म का अनुग्रह सिद्ध हो तो परमाणु आदिकों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति होगी और उनमें उनकी प्रवृत्ति के सिद्ध होने पर उनमें योगजधर्म का अनुग्रह सिद्ध होगा, इस तरह दोनों ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे। अपने २ विषयों में प्रवृत्त होते समय इन्द्रियों के लिए योगजधर्म सहकारी बनता है ऐसा यह दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रियां अपने २ विषय को उल्लंघन नहीं करके ही उसमें प्रवृत्ति करती हैं, योगजधर्म की सहायता मिलने पर भी उनमें विषयान्तर में प्रवृत्ति करने की शक्ति नहीं है । यदि वे विषयान्तर में— अपने अविषयमें - दुसरे विषय में प्रवृत्त होंगी तो एक ही स्पर्शन इन्द्रिय रूप रसादि को ग्रहण कर लेगी और उसी पर योगज धर्म भी अनुग्रह करेगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org