Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा वागनपायिनी। तया व्याप्त जगत्सर्वं ततः शब्दात्मकं जगत् ।। ३ ॥"
[ ] इत्यादि । अन्तरंग ज्योतिस्वरूप सूक्ष्मा वाक् है और यह शाश्वती है, उसी सूक्ष्म वाक् से सारा जगत् व्याप्त है, इसलिये विश्व शब्दमय कहा गया है ॥ ३ ॥
इन उपर्युक्त तीन श्लोकों द्वारा शब्दाद्वैतवादी ने जगत् को शब्दमय सिद्ध करने का प्रयास किया है सो यह प्रयास उसका इसलिये सफल नहीं होता है कि नेत्रज प्रत्यक्ष यह साक्षी नहीं देता है कि पदार्थ शब्द से अनुविद्ध है।
भावार्थ-शब्दातवादी के शब्द-वाग्-के चार भेद किये गये हैं-वैखरी १, मध्यमा २, पश्यन्ती ३, और सूक्ष्मा ४, वैखरी आदि चारों ही वाक् के सामान्य लक्षण उनकी मान्यता के अनुसार इस प्रकार से हैं
वैखरी शब्दनिष्पत्ती मध्यमा श्रुतिगोचरा । द्योतितार्था च पश्यन्ती सूक्ष्मा वागनपायिनी ॥
-कुमार सं० टी० २ । १७ ककारादिवर्णरूप या अन्य ध्वनिरूप जो शब्दमात्र है, वह वैखरी वाक है । कर्ण में प्रविष्ट होकर उस का विषय हुई वाक् मध्यमा वाक् है, केवल जो अर्थ को प्रकट करती है वह पश्यन्ती वाक् है, तथा शाश्वत रहने वाली अति सूक्ष्म वाक् सूक्ष्मावाक् है, इन चारों वाग का विस्तृत विवेचन वाक्यपदी नामक शब्दाद्वैत ग्रन्थ में लिखा है । वर्ण, पद, वाक्य आदि जिसमें व्यवस्थित हैं, उच्चारण करने में जो माती है तथा दुदुभी, वीणा, वांसुरी आदि वाद्यों की ध्वनि रूप जो हैं ऐसी अपरिमित भेद रूप वाणी वैखरी वाक् है, जो अन्तरंग में संकल्परूप से रहती है, तथा कर्ण के द्वारा ग्रहण करने योग्य व्यक्तवर्ण पद जिसमें समाप्त हो गये हैं ऐसी वह वाग् मध्यमावाक् है । यह वैखरी और पश्यन्ती के मध्य में रहती है इसलिये यह सार्थक नाम वाली मध्यमावाग् है । जो स्वप्रकाशरूप संवित् है कि जिसमें ग्राह्य पदार्थ का भेदक्रम नहीं है वह पश्यन्तीवाक् है । इसमें वाच्य वाचक का विभाग प्रवभासित नहीं होता है, इसके परिच्छिन्नार्थप्रत्यवभास, संसृष्टार्थप्रत्यवभास, और प्रशान्तसर्वार्थप्रत्यवभास इत्यादि अनेक भेद हैं। अन्त:ज्योतिस्वरूप सूक्ष्मा वाक् दुर्लक्ष्य और काल के भेद के स्पर्श से रहित होने के कारण कभी नष्ट नहीं होती, जैन मान्यता
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