Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे यच्चोक्तम्-'पाहुविधातृप्रत्यक्षम्' इत्यादि; तत्र किमिदं प्रत्यक्षस्य विधातृत्वं नाम-सत्तामात्रावबोधः, असाधारणवस्तुस्वरूपपरिच्छेदो वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः, नित्यनिरंशव्यापिनो विशेषनिरपेक्षस्य सत्तामात्रस्य स्वप्नेप्यप्रतीतेः खरविषाणवत् । द्वितीयपक्षे तु-कथं नाद्वैतप्रतिपादकागमस्याध्यक्षबाधा ? भावभेदग्राहकत्वेनैवास्य प्रवृत्तः, अन्यथाऽसाधारणवस्तुस्वरूपपरिच्छेदकत्व विरोधः ।
यच्च भेदो देशभेदात्स्यादित्याद्य क्तम् ; तदप्यसङ्गतम् ; सर्वत्राकारभेदस्यवार्थभेदकत्वोपपत्तेः । यत्रापि देशकालभेदस्तत्रापि तद्र पतयाऽऽकारभेद एवोपलक्ष्यते । स चाकारभेदः स्वसामग्रीतो जातोऽहमहमिकया प्रतीयमानेनात्मना प्रतीयते । प्रसाधयिष्यते चात्मा सुखशरीरादिव्यतिरिक्तो जीवसिद्धिप्रघट्टके । कथं चाभेदसिद्धिस्तत्प्रतिपत्तावप्यस्य समानत्वात् ; तथाहि- अभेदोऽर्थानां देशाभेदात्,
"जो व्यक्ति ब्रह्मा में नाना भेदों को देखता है वह यम से मृत्यु को प्राप्त करता है" ऐसा जो निन्दा वाक्य कहा है वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि समस्त प्राणियों के प्रमाणभूत ज्ञान पदार्थों को भिन्न भिन्न रूप से ही ग्रहण करते हैं यह बात प्रतीतिसिद्ध है।
ब्रह्मवादी ने कहा था कि प्रत्यक्ष प्रमाण विधिरूप ही होता है इत्यादि-सो उसमें यह बताइये कि प्रत्यक्ष में विधातृत्व है क्या ? सत्तामात्र को जानना विधातृत्व है अथवा असाधारण वस्तुस्वरूप को जानना विधातृत्व है ? प्रथम पक्ष अयुक्त है, क्योंकि नित्य, निरंश व्यापी और विशेष से रहित ऐसा सत्तामात्र तत्त्व स्वप्न में भी दिखायी नहीं देता है, जैसे कि गधे के सींग दिखाई नहीं देते । द्वितीय पक्ष में अद्वत प्रतिपादक आगम में बाधा आवेगी, क्योंकि असाधारण वस्तुस्वरूप का ग्रहण तो वस्तुओं के भेदों को ग्रहण करके ही प्रवृत्त होता है, नहीं तो उसे असाधारण वस्तुस्वरूप का परिच्छेदक ही नहीं मानेंगे । पहिले जो अद्वतवादी ने पूछा था कि "देशभेद से अथवा कालभेद से भेद का ग्रहण होता है इत्यादि" सो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि सभी चेतन अचेतन वस्तुओं में प्राकारों के भेदों से ही भेद माना गया है । जहां भी देशभेद या कालभेद है, वहां भी उस रूप से आकारभेद हो दिखाई देता है, यह आकारभेद तो अपनी सामग्री के निमित्त से हुआ है, और वह “मैं ऐसा हूं या मेरा यह स्वरूप है" इस प्रकार से प्रतीत होता है, अात्मा शरीर आदि से भिन्न है यह बात हम जीवसिद्धप्रकरण में सिद्ध करने वाले हैं। तथा-अभेदसिद्धि में यही ऊपर के प्रश्न समानरूप से ही पाते हैं अर्थात्-हम पूछते हैं कि-आप पदार्थ में अभेद मानते हो सो क्यों ? देश का अभेद होने से या काल का अथवा आकार का अभेद होने से ? देश अभेद से
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