Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विज्ञानाद्वैतवादः
२४५
सुखदुःखयोर्ज्ञानत्वाभावः, ग्रर्थान्तरभूतानुग्रहाद्यभावे किमायातम् ?' न खलु यज्ञदत्तस्य गौरत्वाभावे देवदत्ताभावो दृष्टः । ननु सुखादौ जैनस्य प्रकाशमानत्वं ज्ञानरूपतया व्याप्ती प्रसिद्धमेवेत्यप्यसारम् ; यतः स्वतः प्रकाशमानत्वं ज्ञानरूपतया व्याप्तं यत्तस्यात्र प्रसिद्धं तन्नीलाद्यर्ये (र्थे) नास्तीत्य सिद्धो हेतुः । यत्तु परत. प्रकाशमानत्वं तत्र प्रसिद्धं तन्न ज्ञानरूपतया व्याप्तम् । प्रकाशमानत्वमात्रं च नीलादावुपलभ्यमानं जडत्वेनाविरुद्धत्वं नैकान्ततो ज्ञानरूपतां प्रसाधयेत् ।
होनेपर आत्मा भी नहीं होता है, इस प्रकार के केवल व्यतिरेकी हेतु को आपने अगमक माना है, वह अयुक्त हो जायगा ।
विशेषार्थ - बौद्ध ने केवल व्यतिरेकी हेतु को अगमक- अपने साध्य को नहीं सिद्ध करनेवाला माना है । उनका कहना है कि "सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्वात् " जीवत् शरीर आत्मा सहित है क्योंकि श्वास आदि क्रिया इसमें हो रही है । जिसमें श्वास आदि की क्रिया नहीं होती उसमें आत्मा भी नहीं होती, जैसे मिट्टीका ढेला, इस अनुमान में जो यह प्राणादिमत्त्व हेतु है वह केवलव्यतिरेकी हेतु है, ऐसे अनुमान को तथा हेतु को जैनाचार्य ने तो सत्य माना है क्योंकि वह अपने साध्यको अवश्य ही सिद्ध करता है, किन्तु बौद्ध का कहना है कि ऐसे हेतु को अनैकान्तिक मानना चाहिये, क्योंकि इस हेतु में सपक्षसत्त्व नहीं रहता है, हेतु में तीन धर्म होना जरूरी है, पक्षधर्म, सपक्ष सत्व और विपक्षव्यावृत्ति, जो केवल व्यतिरेकी होता है उसका सपक्ष नहीं होता, अतः उसे हेत्वाभासरूप वे मानते हैं अब यहां पर आचार्य कहते हैं कि आपने सुख आदि में ज्ञानत्व सिद्ध करने के लिये केवल व्यतिरेकी हेतु दिया है वह कैसे आपको मान्य हुआ ? अर्थात् वह मान्य नहीं होना चाहिये था, सुख प्रादि ज्ञानरूप हैं क्योंकि
आत्मा को अनुग्रह आदि करनेवाले होते हैं, जो अनुग्रह आदि नहीं करते वे ज्ञानरूप भी नहीं होते हैं इत्यादि अनुमान के द्वारा सुखादि में ज्ञानत्व सिद्ध किया सो वह तुम बौद्ध के मत के विरुद्ध पड़ता है । इस प्रकार सुखादि पीड़ा अनुग्रह रूप ही ऐसा पहिला पक्ष बनता नहीं है । दूसरा पक्ष - सुख दुःख आदि से पीड़ा अनुग्रह आदि भिन्न है ऐसा मानो तो भी बाधा आती है, देखो - सुख दुःखों में ज्ञानत्व का प्रभाव माना जाय तो उससे भिन्न स्वरूप पीड़ा आदि में भी क्या ज्ञानत्व का अभाव सिद्ध हो जावेगा, अर्थात् नहीं हो सकेगा, यदि ऐसा माना जाय तो यज्ञदत्त में गौरने का अभाव होने से देवदत्त का अभाव भी सिद्ध होवेगा । किन्तु ऐसा तो होता नहीं है ।
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