Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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शून्याद्वैतवादः
ननु चाक्रमेणाप्येकस्यानेकाकारव्या पित्वं नेष्यते ।
"किं स्यात्सा चित्रकस्यां न स्यात्तस्यां मतावपि । यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।।"
[प्रमाणवा० ३।२१० ] अब यहां पर बौद्ध के चार भेदों में से एक माध्यमिक नामक अद्वैतवादी अपने शून्याद्वैत को सिद्ध करने के लिये पूर्वपक्ष रखता है, कहता है कि हम माध्यमिक बौद्ध तो चित्राद्वतवादी के समान बुद्धि में एकमात्र अनेक प्राकार होना भी नहीं मानते हैं-हमारे यहां प्रमाणवातिक ( ग्रन्थ ) में कहा है कि बुद्धि में नाना आकार वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि यदि बुद्धि के नानाकार सत्य हैं तो पदार्थ भेद भी सत्य बन जावेंगे, इसलिये एक बुदिध में चित्रता अर्थात् नानापना वास्तविक रूप से स्वीकार नहीं किया है । “एक और नाना" यह तो परस्पर विरुद्ध बात पड़ती है। यदि बुद्धि को एक होते हुए भी नानारूप माना जाय तब तो सारे विश्व को ही एक रूप मानना होगा, उसके लिये भी कहेंगे कि विश्व एक होकर भी नानाकार है इत्यादि, बात यह है कि ज्ञानों का ऐसा ही स्वभाव है कि वे उस रूप अर्थात् नाना रूप नहीं होते हैं तो भी उस रूप से वे प्रतीत होते हैं, और इस प्रकार के ज्ञानों के स्वभाव के विषय में हम कर भी क्या सकते हैं अर्थात् यह पूछ नहीं सकते हैं कि ज्ञान नानाकार वाले नहीं होते हुए भी नानाकार वाले क्यों दिखलाते हैं। क्योंकि "स्वभावोऽतर्क गोचरः” वस्तु स्वभाव तर्क के अगोचर होते हैं, इस प्रकार यह निश्चय हुआ कि बुद्धि में अनेक प्राकार नहीं हैं। अत: जैन ने जो सिद्ध किया था कि जैसे एक बुद्धि में युगपत् अनेक आकार होते हैं वैसे ही क्रम से भी अनेक आकार उसमें होते हैं इत्यादि, सो यह सब कथन उनका प्रसिद्ध हो जाता है।
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