Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रमाणप्रतिपन्नस्य द्वैतलक्षणवस्तुनः प्रतिषेधेनाऽद्वतप्रसिद्ध रभ्युपगमात् । द्वैतादद्वैतस्य व्यतिरेके च द्वैतानुषङ्ग एव । अव्यतिरेकेपि द्वतप्रसक्तिरेव भिन्नादभिन्नस्याभेदे (द) विरोधात् । हो ? निषेध के दो भेद हैं "पर्युदासः सदृग्ग्राही प्रसज्यस्तु निषेध कृत्" एक पर्युदास निषेध और दूसरा प्रसज्यप्रतिषेध । इनमें पर्युदासनिषेध सदृश को ग्रहण करता है, इससे तो इस प्रकार सिद्ध होगा कि द्वत का निषेध करके अद्वैत को स्वीकार करना, किन्तु इस तरह के कथन से द्वैत का सर्वथा निषेध नहीं होता है कि द्वैत कहीं पर भी नहीं है । प्रसज्य प्रतिषेध मात्र निषेध करने में क्षीण शक्तिक हो जाता है, वह तो इतना ही कहता है कि द्वत नहीं है, किन्तु अद्वैत है ऐसा सिद्ध करना उसके द्वारा शक्य नहीं है, अतः दोनों ही प्रतिषेध अद्वैतवाद को सिद्ध करने में असमर्थ हैं । इसी प्रकार द्वैत को अद्वैत से पृथक् कहें तो द्वैत की ही सिद्धि होती है, क्योंकि यह इससे पृथक् है ऐसा कथन तो दो पदार्थों में होता है, अद्वैत को द्वैत से सर्वथा अभिन्न कहें तो भी वही बात द्वत की सिद्धि की आ जाती है, तथा द्वत से अद्वैत को अभिन्न मानने में विरोध भी आता है, अत: किसी भी तरह से अद्वैतमत की सिद्धि नहीं होती है।
* विज्ञानाद्वैतवाद का विचार समाप्त *
विज्ञानाद्वैतवाद के खंडन का सारांश
पूर्वपक्ष-बौद्ध-विज्ञानाद्वैतवादी का कहना है कि अविभागी एक बुद्धिमात्र तत्त्व को छोड़कर और कोई भी पदार्थ नहीं है, इसलिये एक विज्ञानमात्र तत्त्व ही मानना चाहिये, ऐसे ज्ञानमात्रतत्त्व को ग्रहण करनेवाला ज्ञान ही प्रमाण है, हम लोग अर्थ का अभाव होनेसे एक ज्ञानमात्र तत्त्व को नहीं मानते किन्तु अर्थ और ज्ञान एकट्ठ ही उपलब्ध होते हैं । अतः इनमें हम लोगों ने अभेद माना है । देखिये-"जो प्रतिभासित होता है वह ज्ञान है क्योंकि उसकी प्रतीति होती है, जैसे सुखादि नीलादि भी प्रतीत होते हैं अतः वे भी ज्ञानरूप ही हैं" । इस अनुमान के द्वारा समस्त पदार्थ ज्ञानरूप सिद्ध हो जाते हैं। द्वतवादी जो जैन आदि हैं वे अहं प्रत्यय से नीलादिकों का ग्रहण होना मानते हैं, किन्तु यह अहं प्रत्यय क्या है सो वही सिद्ध नहीं होता, वह प्रत्यय गृहीत है
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