Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
और अनुभव भी करते हैं तो क्या उस में 'मैं'' यह अहं प्रत्यय नहीं है ? यह अहं प्रत्यय स्वतः गहीत है अगहोत नहीं। अपने को और पर को जानना यही उसका व्यापार है, इसके अतिरिक्त और कुछ उसका व्यापार नहीं है । वह अहं प्रत्यय निराकार है, क्योंकि आगे साकारवाद का निराकरण किया जानेवाला है। यह अहं प्रत्यय भिन्नकाल है कि समकाल है यह प्रश्न तो आप बौद्धों पर ही लागू होता है हम पर नहीं, हमारे यहां तो ज्ञान चाहे समकाल हो चाहे अर्थ के भिन्नकाल में हो वह अपनी योग्यता के अनुसार पदार्थ का ग्राहक माना गया है । ज्ञानमात्र तत्व मानने में सबसे बड़ी आपत्ति यह होगी कि वह ज्ञान ही ग्राह्य ग्राहक बनेगा, तो जो बाह्य पदार्थ में धरना, उठाना, फोड़ना, पकड़ना आदि कार्य होते देखे जाते हैं वे सब उस ज्ञानतत्त्व में कैसे होंगे । अर्थात् ज्ञानमें आकार मात्र है और कुछ पदार्थ तो है नहीं तो फिर ज्ञान के आकार में उठाने धरने आदिरूप क्रिया कैसे संभव हो सकती है, अत: अन्तरंग अहं रूप तत्त्व तो ज्ञान है और बहिरंग अनेक कार्य जिस में हो रहे हैं वे बाह्यतत्त्व हैं । ऐसे वे तत्व चेतन अचेतन रूप हैं, इनके माने विना जगत् का प्रत्यक्ष दृष्ट व्यवहार नहीं सध सकता है। अद्वैतपक्ष में अनगिनती बाधाएं आती हैं, सबसे प्रथम अद्वैत और उसे सिद्ध करने वाला प्रमाण यह दो रूप द्वैत तो हो ही जाता है । अद्वत में जो "नज" समास है "न द्वैतं अद्वैतं" ऐसा, सो इसमें नकार का अर्थ सर्वथा निषेधरूप है तो शून्यवाद होगा और द्वैत का निषेधरूप है तो वह निषेध विधिपूर्वक ही होगा, इससे यह फलितार्थ निकलता है कि द्वैत कहीं पर है तभी उसका निषेध है, इस प्रकार अद्वैत सिद्ध न होने से विज्ञान मात्र तत्व है यह बात असिद्ध हो जाती है ।
* विज्ञानाद्वैतवाद के खंडन का सारांश समाप्त *
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