Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
View full book text
________________
विज्ञानाद्वैतवादः
२२३
अथैकस्यैवोपलम्भः; किं ज्ञानस्य, अर्थस्य वा ? ज्ञानस्यैव चेत् ; असिद्धो हेतुः । न खलु परं प्रति ज्ञानस्यैवोपलब्धिः सिद्धा; अर्थस्याप्युपलब्धेः । न चार्थस्याभावादनुपलब्धिः; इतरेतराश्रयानुषङ्गात्-सिद्ध ह्यर्थाभावे ज्ञानस्यैवोपलम्भः सिद्धयेत्, तदुपलम्भसिद्धौ चार्थाभावसिद्धिरिति । अथार्थस्यैवैकस्योपलम्भः; नन्वेवं कथमर्थाभावसिद्धिः ? ज्ञानस्यैवाभावसिद्धिप्रसङ्गात् । उपलम्भनिबन्धनत्वाद्वस्तुव्यवस्थायाः । स्वरूपकारणभेदाच्चानयोर्भेदः; ग्राहकस्वरूप हि विज्ञानं नीलादिकं तु ग्राह्यस्वरूपम् । अभेदे च तयोर्ग्राहकता ग्राह्यता वाऽविशेषेण स्यात् । कारणभेदस्तु सुप्रसिद्धः, ज्ञानस्थ चक्षुरादिकारणप्रभवत्वात्तद्विपरीतत्वाच्च नीलाद्यर्थस्येति ।
अनेक ज्ञानों से उपलब्ध होते रहते हैं, अर्थात् नीलादिक वस्तु जिस समय एक व्यक्ति के ज्ञान से जानी जा रही है उसी समय उसी वस्तु को अन्य २ पुरुष अपने २ ज्ञानों द्वारा जान रहे होते हैं, अत: “एक ज्ञान से ही उपलब्ध होते हैं" ऐसा यह हेतु प्रसिद्ध हो जाता है, एकोपलम्भ के समान ही एकलोलीभावोपलम्भ भी खण्डित हो जाता है, अर्थात् चित्रज्ञान के आकारों का जिस प्रकार से एकलोलीभाव होने से उन आकारों का पृथक् पृथक् विवेचन कर नहीं सकते, उसी प्रकार एकलोलीभावोपलंभरूप सहोपलम्भ होने से ज्ञान और पदार्थ में अभेद है ऐसा सिद्ध करना भी अशक्य है, नीलादि पदार्थ और ज्ञान इन दोनों का विवेचन-पृथक्करण अशक्य नहीं है, बिलकुल शक्य बात है, देखो-नील पदार्थ बाहर में सामने दिखायी दे रहा है और उसको जानने वाला ज्ञान तो अन्त:-अन्दर में अनुभव में आ रहा है ।। अब एकोपलम्भ शब्द का जो चतुर्थ प्रकार से अर्थ किया है उस पर विचार किया जाता है - एक का ही उपलम्भ होना एकोपलम्भ है ऐसा सहोपलम्भ हेतु का अर्थ किया जाता है तो बताओ कि एक का ही किसका ? क्या एक-अकेले ज्ञान का ही अथवा एक पदार्थ का ही उपलम्भ एकोपलम्भ है ? एक ज्ञान का ही यदि उपलम्भ माना जाय तो हेतु प्रसिद्ध बन जायगा, क्योंकि हम परवादी जैन को अकेले ज्ञान की ही उपलब्धि होती है ऐसी बात मान्य नहीं है क्योंकि पदार्थों की भी उपलब्धि होतो है, यदि कहा जावे कि पदार्थों का प्रभाव होनेसे एक ज्ञान मात्र की ही उपलब्धि होना सिद्ध होती है सो ऐसा कहने से-मानने से अन्योन्याश्रय दोष आता है, क्योंकि अर्थों का जब प्रभाव सिद्ध हो जाय तो एक ज्ञान मात्र का उपलम्भ सिद्ध हो और उसके सिद्ध होने पर अर्थों के अभाव की सिद्धि हो, यदि द्वितीय विकल्प कि-एक अर्थ की ही उपलब्धि एकोपलब्धि है ऐसा मानो तो फिर अर्थ का अभाव सिद्ध न हो कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org