Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विज्ञानाद्वैतवादः
२२७
विकल्पे तु सम्बन्धासिद्धिः; ततस्तस्योपकाराभावात् । उपकारे वानवस्था तन्निवर्तने व्यापारस्यापरव्यापारपरिकल्पनात् । निराकारत्वे वा बोधस्य ; अतः प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यात् । साकारत्वे वा बाह्यार्थपरिकल्पनानर्थक्यं नीलाद्याकारेण बोधेनैव पर्याप्तत्वात् । तदुक्तम्
"धियो(योऽ)लादिरूपत्वे बायोऽर्थः किन्निबन्धनः । धियोऽ (यो) नीलादिरूपत्वे वाह्योऽर्थः किन्निबन्धनः ॥ १॥"
[प्रमाणवा. ३१४३१] तथा न भिन्नकालोऽसौ तद्ग्राहकः; बोधेन स्वकालेऽविद्यमानार्थस्य ग्रहणे निखिलस्य
माना जावेगा तो उस अहं प्रत्ययरूप ज्ञान से-विषय-व्यवस्था नहीं बनेगी, फिर घट ज्ञान घट को ही जानता है और पट ज्ञान पट को ही ग्रहण करता है ऐसा विषयके प्रति प्रतिनियम नहीं रहेगा। चाहे जो ज्ञान चाहे जिस वस्तु को जानने लगेगा। यदि अहं प्रत्यय को साकार माना जावे तब तो बाद्यपदार्थों की कल्पना करना ही बेकार है क्योंकि ज्ञान ही नील आदि प्राकार रूप परिणत हो जावेगा और उसी से सब काम भी हो जायगा । प्रमाणवार्तिक ग्रन्थ में लिखा है कि
यदि बुद्धि में नील पीत आदि आकार नहीं है तो बाह्यपदार्थों का क्या प्रयोजन है- उन्हें किसलिये मानना, और यदि बुद्धि स्वयं नील पीत आदि आकार वाली है तो बाह्यपदार्थ होकर करेंगे ही क्या ? अर्थात् फिर उनसे कुछ प्रयोजन ही नहीं रहता है।
अब अन्तिम विकल्प पर विचार करते हैं कि वह अहं प्रत्यय भिन्न काल वाला है या समकाल वाला है ? भिन्न काल में रहकर यदि वह पदार्थों को ग्रहण करता है-जानता है तो सभी पुरुष-सभी प्राणिमात्र-सर्वज्ञ बन जावेंगे अर्थात् बोध अपने समय में विद्यमान पदार्थों का ग्राहक माना जायगा तो भूत और वर्तमान कालवर्ती पदार्थ जो कि बोधकाल में नहीं है उनका भी वह ग्राहक-जानने वाला हो जाने से प्राणिमात्र में सर्वज्ञता आजाने का प्रसंग प्राजाता है, अत: भिन्न काल वाला होकर वह अहं प्रत्ययरूप बोध नीलादि पदार्थों का ग्राहक नहीं बनता है । यदि वह पदार्थों के समकालीन होकर उनका ग्राहक होता है ऐसा कहा जावे तो यह विकल्प भी नहीं बनता है, क्योंकि समानकाल में होने वाले ज्ञान और ज्ञेयों में उनसे उत्पन्न होना आदि रूप किसी भी प्रकार का नियम न होने से ग्राह्य ग्राहक भाव होना असम्भव
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