Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विज्ञानाद्वैतवादः कथञ्च वंवादिनोऽनुमानोच्छेदो न स्यात्, तथा हि-त्रिरूपाल्लिङ्गाङ्गिनि ज्ञानमनुमानं प्रसिद्धम् । लिङ्ग चावभासमानत्वमन्यद्वा यदि भिन्न कालं तस्य जनकम् ; ताकस्यानुमानस्याशेषमतीतमनागतं तज्जनकमित्यत एवाशेषानुमेयप्रतीतेरनुमान भेदकल्पनानर्थक्यम् । अथ भिन्नकालत्वाविशेषेपि किञ्चिदेव लिङ्ग कस्यचिजनकमित्यदोषोयम् ; नन्वेवं तदविशेषेपि किञ्चिदेव ज्ञानं कस्यचिदेवार्थस्य ग्राहक कि नेष्यते ? अथातीतानुत्पन्नेऽर्थे प्रवृत्तं ज्ञानं निविषयं स्यात्, तहि नष्टानुत्पन्नालिङ्गादुपजायमानमनुमानं निर्हेतुकं किं न स्यात् ? यथा च स्वकाले विद्यमानं स्वरूपेण जनकम् तथा ग्राह्यमपि । तन्न भिन्न कालं लिङ्गमनुमानस्य जनकम् । नापि समकालं तस्य जनकत्वहोता तो भी वे ज्ञान के द्वारा ग्रहण अवश्य किये जाते हैं, अतः बौद्ध का यह कहना कि भिन्नकालीन वस्तु को ज्ञान कैसे जानेगा इत्यादि सो वह असत्य होता है ।। आप बौद्ध ज्ञान के विषय में भिन्न काल कि समकाल ऐसा प्रश्न करोगे तो अनुमान प्रमाण की वार्ता छिन्न भिन्न हो जावेगी। देखिये – पक्षधर्म, सपक्षसत्व और विपक्ष व्यावृत्ति वाले त्रिरूप हेतु से साध्य का ज्ञान होता है, ऐसा आपके यहां माना है, सो अद्वैत साधक अनुमान में जो अवभासमानत्व हेतु है अथवा अन्य कोई सहोपलम्भ आदि हेतु है उस पर भी ऐसा पूछा जा सकता है कि यह किस प्रकार का होगा ? क्या भिन्न कालीन होगा ? यदि वह भिन्न कालीन होकर अनुमान को उत्पन्न करता है, तब उस एक ही अनुमान के हेतु से अतीत अनागत सभी अनुमान ज्ञान पैदा हो जायेंगे, तथा उस एक ही अनुमान ज्ञान के द्वारा सम्पूर्ण साध्य वस्तुओं की सिद्धि हो जायगी, फिर भिन्न भिन्न अनुमानों की जरूरत नहीं रहेगी, यदि कहा जाय कि भिन्न कालीन होते हैं तो भी कोई एक हेतु किसी एक ही अनुमान ज्ञान को उत्पन्न करता है न कि सभी अनुमान ज्ञान को तब हम जैन भी कहते हैं कि-ज्ञान पदार्थ से पृथक् काल में रहकर भी किसी एक पदार्थ का ग्राहक होता है ऐसा कथन भी क्यों न माना जाय, अर्थात् मानना ही चाहिये।
शंका--अतीत और अनागत सम्बंधी पदार्थों को ज्ञान जानेगा तो ज्ञान निविषय हो जायगा ?
समाधान -तो फिर नष्ट और अनुत्पन्न-उत्पन्न नहीं हुए हेतुत्रों से पैदा होने वाला अनुमानज्ञान निर्हेतुक क्यों नहीं होगा, तथा हेतु जैसे अपने काल में स्वरूप से विद्यमान रहकर ही अनुमान को पैदा करता है, उसी प्रकार ज्ञान भिन्न काल में रहकर भी वस्तु को-अपने ग्राह्य को ग्रहण करता है ऐसा आपको मानना चाहिये,
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