Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विज्ञानाद्वैतवादः
२२१ न ह्य कस्मिन् यौगपद्यमुपपद्यते । द्वितीयपक्षेप्यसिद्धो हेतुः; क्रमेणोपलम्भाभावमात्रस्य वादिप्रतिवादिनोरसिद्धत्वात् ।
किञ्च, अस्मादभेदः-एकत्वं साध्येत, भेदाभावो वा ? तत्राद्यविकल्पोऽसङ्गतः; भावाऽभावयोस्तादात्म्यतदुत्पत्तिलक्षणसम्बन्धाभावतो गम्यगमकभावायोगात् । प्रसिद्ध हि धूमपावकयोः कार्यकारणभावे-शिशपात्ववृक्षत्वयोश्च तादात्म्ये प्रतिबन्धे गम्यगमकभावो दृष्ट: । द्वितीय विकल्पेपि-प्रभावस्वभावत्वात्साध्यसाधनयोः सम्बन्धाऽभावः, तादात्म्यतदुत्पत्त्योरर्थस्वभावप्रतिनियमात् । अनिष्ट
होना सहोपलंभ है ऐसा हेतु का अर्थ करते हो तो ठीक नहीं है और न वादी प्रतिवादी जो तुम बौद्ध और हम जैन हैं उन्होंने ऐसा तुच्छाभाव माना ही है, दोनों ने ही प्रसज्य प्रतिषेधवाला तुच्छाभाव न मानकर पर्यु दास प्रतिषेधरूप अभाव माना है ।। अच्छा-आप अद्वैतवादी यह बताने का कष्ट करें कि अद्वैत को सिद्ध करने वाले अनुमान से पदार्थ और ज्ञान में एकत्वसिद्ध किया जाता है कि भेद का अभाव सिद्ध किया जाता है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि भाव और प्रभाव अर्थात् साध्य तो सद्भावरूप है और हेतु अभावरूप है, भाव और प्रभाव में आपके यहां पर तादात्म्यसम्बन्ध या तदुत्पत्तिसम्बन्ध नहीं माना है, अत: इन भाव और प्रभाव में साध्य साधनपना बनाना शक्य नहीं है, जब कहीं पर धूम और अग्नि में कार्यकारणभाव तथा वृक्ष और शिशपा में तादात्म्य सम्बन्ध सिद्ध होता है, तब उनमें गम्यगमक-साध्य साधनभाव देखा जाता है; अर्थात् धूम को देखकर अग्नि का और शिशपा को देखकर वृक्ष का ज्ञान होता है, किन्तु यहां भाव अभाव में सम्बन्ध न होने से वह बनता नहीं । भेद के अभाव को साध्य बनाते हैं ऐसा दूसरा विकल्प मानो अर्थात् “बाह्यपदार्थों का अभाव है क्योंकि वे क्रम से उपलब्ध नहीं होते हैं" इस प्रकार से अनुमान का प्रयोग किया जाय तो गलत होगा, क्योंकि साध्य साधन दोनों भी अभाव स्वभाववाले हो जाते हैं । और प्रभावों में सम्बन्ध होता नहीं, सम्बन्धमात्र चाहे तादात्म्य हो चाहे तदुत्पत्ति हो दोनों ही पदार्थों के स्वभाव हैं न कि प्रभावों के स्वभाव हैं, आप बौद्ध यदि ऐसे साध्य साधन को अभावरूप मानेंगे तो अनिष्ट सिद्धि हो जायगी मतलब-यापको तुच्छाभाव मानना पड़ेगा जो कि आपके मत में इष्ट नहीं है, इस क्रम से उपलब्धि नहीं होने रूप हेतु से आपका साध्य सिद्ध भी हो जाय तो भी कोई सार नहीं निकलेगा, उस हेतु से आपके विज्ञानमात्रतत्त्व की सिद्धि होगी नहीं, क्योंकि वह हेतु तो भेद का निषेधमात्र करता है, संपूर्ण भेदों का निषेध न
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