Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विज्ञानाद्वैतवादः
२१६ कारणदोषज्ञानाद्बाधकप्रत्ययाच्चास्य भ्रान्तता । अर्थक्रियाकारिस्तम्भाधु पलब्धौ तु तदभावात्सत्यता । सहोपलम्भनियमश्चासिद्धः; नीलादार्थोपलम्भमन्तरेणाप्युपरतेन्द्रियव्यापारेण सुखादिसंवेदनोपलम्भात् । अनैकान्तिकश्वायम् ; रूपालोकयोभिन्नयोरपि सहोपलम्भनियमसम्भवात् । तथा सर्वज्ञज्ञानस्य तज्ज्ञेयस्य चेतरजनचित्तस्य सहोपलम्भनियमेऽपि भेदाभ्युपगमादनेकान्तः । ननु सर्वज्ञः सन्तानान्तरं वा नेष्यते तत्कथमयं दोषः ? इत्यसत् ; सकललोकसाक्षिकस्य सन्तानान्तरस्यानभ्युपगममात्रेणाऽभावाऽसिद्ध: । सुगतश्च सर्वज्ञो यदि परमार्थतो नेष्यते तहि किमर्थं "प्रमाणभूताय" [ प्रमाणसमु.
बाह्यपदार्थों की सत्ता बताने वाले ज्ञानों में नहीं है, क्योंकि इन ज्ञानों में झलके हुए पदार्थों में-घट, स्तम्भ, पट आदि में अर्थक्रिया होती है, अतः इनमें सत्यता है, बाह्यपदार्थ के अभाव को सिद्ध करने के लिये आपने जो सहोपलम्भ हेतु दिया है अर्थात् पदार्थ और ज्ञान साथ ही उपलब्ध होते हैं, इसलिये एक ज्ञान ही है, बाह्यपदार्थ नहीं है ऐसा कहा है सो यह कथन आपका असिद्ध है, क्योंकि नील आदि बाह्यपदार्थों का ज्ञान जिस समय नहीं है और बाह्य में इन्द्रिय व्यापार को जिसने रोक लिया है ऐसे पुरुष के ज्ञान में सुखादि का संवेदन होता ही है-अर्थात् वहां बाह्यपदार्थ तो नहीं है, किन्तु मात्र सुख का संवेदन-ज्ञान मात्र ही है। सहोपलम्भ हेतु में प्रसिद्धदोष के समान अनैकान्तिक दोष भी है, देखो-रूप और प्रकाश साथ २ उपलब्ध होते हैं, किन्तु वे एक तो नहीं है, इसलिये जो साथ २ होवे वे एक ही होते हैं ऐसा एकान्त नहीं बनता। बौद्ध ने सर्वज्ञ का ज्ञान और उस ज्ञानके विषय जो अन्य पुरुषों के चित्त हैं इन दोनों का एक साथ होना स्वीकार किया है, फिर भी उनमें भेद माना है, अतः सहोपलम्भ हेतु अनेकान्तिक दोष युक्त है।
बौद्ध-हम सर्वज्ञ को नहीं मानते हैं और न अन्य पुरुष के चित को ही मानते हैं, फिर तो दोष नहीं प्रावेगा।
जैन-यह कथन असत्य है, क्योंकि संपूर्ण लोकों में प्रतीतिसिद्ध पाये जाने वाले जो चित्त हैं उनका अभाव आपके कहने मात्र से नहीं हो सकता है, यदि आप सुगत को परमार्थभूत सर्वज्ञ नहीं मानते हैं तो ग्रन्थों में उसका समर्थन क्यों किया जाता है कि "प्रमाणभूताय जगद्धितैषिणे प्रणम्य शास्त्रे सुगताय तायिते' इस प्रकार से दिग्नाग आदि विद्वानों ने उस सुगत की स्तुति भी अपने अद्वैतवादके समर्थक ग्रन्थों में की है, सो वह सब व्यर्थ हो जावेगी, क्योंकि सुगत तो सर्वज्ञ नहीं है। पदार्थों का यदि अस्तित्व नहीं होता तो उनके सत्त्व की कल्पना बुद्धि में नहीं आ सकती थी।
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