Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ब्रह्माद्वैतवादः
१६७
प्यसङ्गतम् ; स्वातन्त्र्यव्याघातानुषङ्गात् । समर्थस्वभावस्यासमर्थस्वभावस्य वा नित्यकरूपस्य वस्तुनो. ऽन्यापेक्षाऽयोगाच्च । अदृष्टवशाच्च जगद्वैचित्र्यसम्भवे-किमनेनान्तर्गडुना पीडाकारिणा ? अदृष्टापेक्षा चास्यानुपपन्ना, किं त्ववधीरणमेवोपपन्नम् . अन्यथा कृपालुत्वव्याघातप्रसङ्गः । न हि कृपालवः परदुःखं तद्धतुवाऽन्विच्छन्ति, परदुःखतत्कारण वियोगवाञ्छयैव प्रवृत्तेः ।
ननु यथोर्णनाभो जालादिविधाने स्वभावतः प्रवर्तते, तथात्मा जगद्विधाने इत्यप्यसत् ; उर्णनाभो हि न स्वभावतः प्रवर्तते । किं तहि ? प्राणिभक्षणलाम्पट्यात्प्रतिनियतहेतुसम्भूततया कादा. चित्कात् । 'मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति' इति निन्दावादोप्यनुपपन्नः; सकलप्राणिनां भेदग्राहकत्वेनैवाखिलप्रमाणानां प्रवृत्तिप्रतीते: ।
के वश होकर जगत की रचना करे । मान लिया जावे कि अनुकम्पा से वह जगत की रचना करता है, तो देव, मनुष्यादि सुखी प्राणी का नाश क्यों करता है ? दुःखी प्राणी का ही उसे नाश करना था, कहो कि प्रत्येक प्राणी के भाग्य की अपेक्षा लेकर सुख और दुःखमय जगत् की वह रचना करता है सो ऐसा कथन भी असंगत है, क्योंकि ऐसे तो ब्रह्माजो की स्वतन्त्रता का व्याघात हो जावेगा । व्यक्ति समर्थ हो चाहे असमर्थ हो, जो नित्य एक स्वरूप है वह अन्य की अपेक्षा रखता ही नहीं, यदि रखता है तो वह नित्य और एक रूप नहीं कहलावेगा । तथा यदि अदृष्ट के वशसे ही जगत् में विचित्रता आती है तो फिर यह बीच में दुःखदायी शरीर के भीतर के फोड़े के समान ब्रह्मा को क्यों मानते हो, तथा अदृष्ट की अपेक्षा ब्रह्मा के बन ही नहीं सकती है, क्योंकि यदि ब्रह्मा को किसी का भला करना है और अदृष्ट उसका ठीक नहीं है तो वह उसका भला नहीं कर सकता, इस तरह अदृष्टाधीन ब्रह्मा को कहने पर उसकी अवज्ञा-अपमान करना है, ब्रह्मा यदि स्वतन्त्र होता तो भला करता, स्वतन्त्र रहकर ही यदि वह दया नहीं करे तो उसमें कृपालुता खतम हो जाती है, क्योंकि दयावान् व्यक्ति दूसरों के दुःख अथवा दुःख के कारणों को तो चाहते नहीं, उनकी तो दूसरे के दुःख दूर करने में ही प्रवृत्ति होती है ।
___शंका-जैसे मकड़ी स्वभाव से जाल बनाती है वैसे ही ब्रह्मा जगत् की रचना करने में स्वभावत: प्रवृत्त होता है ?
समाधान-यह कथन गलत है, क्योंकि मकड़ी स्वभावतः जाल नहीं बनाती, किन्तु प्रतिनियत भूख आदि के कारण वह कभी कभी प्राणी भक्षण की आसक्तिरूप कारण को लेकर जाल बनाती है ।
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