Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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अपूर्वार्थत्वविचारः अपूर्वार्थप्रत्ययस्य प्रामाण्ये द्विचन्द्रादिप्रत्ययोऽपि प्रमाणं स्यात् । निश्चितत्वं तु परोक्षज्ञानवादिनो न सम्भवतीत्यग्ने वक्ष्यामः ।
ननु द्विचन्द्रादिप्रत्ययस्य सबाधकत्वान्न प्रमाणता, यत्र हि बाधाविरहस्तत्प्रमाणम् ; इत्यप्यसङ्गतम् ; बाधाविरहो हि तत्कालभावी, उत्तरकालभावी वा विज्ञानप्रमाणताहेतुः ? न तावत्तत्कालभावी ; क्वचिन्मिथ्याज्ञानेऽपि तस्य भावात् । अथोत्तरकालभावी; स किं ज्ञातः, अज्ञातो वा ? न तावदज्ञातः; अस्य सत्त्वेनाप्यसिद्ध: । ज्ञातश्वत्-कि पूर्वज्ञानेन, उत्तरज्ञानेन वा ? न तावत्पूर्व
अपूर्वता नहीं रहती, और बार २ ग्रहण किये बिना उसमें नित्यता सिद्ध नहीं होती, तथा किसी को ऐसा जोड़रूप ज्ञान होता है कि यह वही देवदत्त है कि जिसे मैंने १० वर्ष पहिले देखा था, ऐसा ज्ञान ही प्रत्यभिज्ञान है और इस ज्ञानसे वस्तु में नित्यता सिद्ध होती है, तथा-प्रत्यभिज्ञान की सहायता से अर्थापत्ति आदि ज्ञान होते हैं वे सभी ज्ञान पूर्वार्थ को ग्रहण करते हैं, सर्वथा अपूर्वार्थ को नहीं, अतः जो सर्वथा अपूर्व अर्थ हो वही प्रमाण का विषय है ऐसा जो प्रभाकर का मान्य प्रमाण लक्षण है वह घटित नहीं होता है । क्योंकि ऐसा मानने से अर्थापत्तिज्ञान में प्रमाणता नहीं बन सकती । तथा जितने भी अनुमानज्ञान हैं वे सब व्याप्तिज्ञान के द्वारा जाने गये विषय में ही प्रवृत्त होते हैं, अतः उनमें प्रमाणता का निर्वाह कैसे हो सकेगा ? प्रत्यभिज्ञान के द्वारा शब्दादि में नित्यता सिद्ध होने पर भी उसमें यदि किसी को संशयादि हो जाते हैं तब उस समारोप को दूर करने के लिये अनुमानादि प्रमाण माने गये हैं, यदि ऐसा कहा जावे तो फिर यह एकान्त कहां रहा कि अपूर्वार्थ ही प्रमाण का विषय होता है । तथा स्मृति, तर्क आदि और भी प्रमाणों का सदुभाव होने से आपके द्वारा स्वीकृत प्रमाण संख्या का व्याघात होता है, क्योंकि इन स्मृति आदि प्रमाणों के विषयों में भी प्रत्यभिज्ञान की तरह कथंचित् अपूर्वार्थपना मौजूद ही है । किञ्च-यदि अपूर्वार्थ ही प्रमाण का विषय है तो द्विचन्द्रादि ज्ञान भी सत्य होने चाहिये, क्योंकि एक चन्द्र में द्विचन्द्र का ज्ञान तो बहुत ही अधिक अपूर्व विषय वाला है। एक बात और है कि आप सर्वथा ज्ञान को परोक्ष मानते हो सो ऐसे ज्ञानों में निश्चायकपना ही नहीं हो सकता, ऐसा हम आगे कहने वाले हैं।
शंका-द्विचन्द्रादिज्ञान बाधायुक्त हैं, अतः उनमें प्रमाणता नहीं है । जिस प्रमाण के विषयमें बाधा नहीं आती है वही प्रमाण होता है ।
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