Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
"प्राविधातृ प्रत्यक्षं न निषेधृ विपश्चितः ।
नैकत्वे आगमस्तेन प्रत्यक्षेण प्रबाध्यते ।।" [ ] किञ्च, अर्थानां भेदो देशभेदात्, कालभेदात्, आकारभदाद्वा स्यात् ? न तावद्दे शभेदात् ; स्वतोऽभिन्नस्याऽन्यभेदेऽपि भेदानुपपत्तेः । नह्यन्यभेदोऽन्यत्र संक्रामति । कथं च देशस्य भेदः ? अन्यदेशभेदाच्चे दनवस्था । स्वतश्चेत् ; तहि भावभेदोऽपि स्वत एवास्तु किं देशभेदाद्भदकल्पनया ? तन्न देशभेदाद्वस्तुभेदः । नापि कालभेदात् ; तद्भदस्यैवाध्यक्षतोऽप्रसिद्ध । तद्धि सन्निहितं वस्तुमात्रमेवाधिगच्छति नातीतादिकालभेदं तद्नतार्थभेदं वा आकारभेदोऽप्यर्थानां भेदको व्यतिरिक्तप्रमाणात्प्रतिभाति, स्वतो वा ? न तावद् व्यतिरिक्तप्रमाणात् ; तस्य नीलसुखादिव्यतिरिक्तस्वरूपस्याप्रतिभासमानत्वाद् ।
भेदवादी-द्वैतवादी पदार्थों में भेद क्यों मानते हैं ? क्या देशभेद होने से या कालभेद होने से या कि आकारभेद होने से ? यदि ऐसा माना जाय कि देशभेद होने से अर्थों में ( पदार्थों में ) भेद है तो वह बनता नहीं है, क्योंकि जो स्वतः स्वरूप से अभिन्न हैं उनमें अन्य के द्वारा भेद नहीं हो सकता, क्योंकि अन्य का भेद अन्य में संक्रामित नहीं होता है, तथा देशभेद भी किससे सिद्ध होगा ? अन्य किसी देशभेद से कहो तो अनवस्था होगी, यदि देशभेद स्वतः ही सिद्ध है ऐसा कहो तो वैसा ही पदार्थों में भी स्वतः भेद मान लेना चाहिये, देशभेद से भेद की कल्पना करने से क्या लाभअर्थात् देशभेद से पदार्थों में भेद होता है ऐसा मानने की क्या आवश्यकता है, अत: देशभेद से वस्तुओं में भेद होता है यह बात सिद्ध नहीं होती है।
यदि कहो कि कालभेद से वस्तुओं में भेद होता है, सो ऐसा कहना भी नहीं बनता, क्योंकि कालभेद ही स्वतः प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं होता, कारण-प्रत्यक्ष तो निकटवर्ती वस्तुमात्र को ही ग्रहण करता है, वह तो अतीत काल आदि के भेद को और उसके निमित्त से हुए अर्थ भेद को नहीं जानता है ।
यदि कहो कि भिन्न-भिन्न संस्थानों के भेद से पदार्थों में भेद होता है, सो ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि हम आप ( जैन ) से पूछते हैं कि आकार भेद किसी भिन्न प्रमाण से प्रतिभासित होता है ? कि स्वत: प्रतिभासित होता है ? यदि कहा जावे कि आकारभेद किसी अन्य प्रमाण से प्रतीत होता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि नीलादिरूप बहिरंग वस्तु एवं सुखादिरूप अन्तरंग वस्तु के सिवाय अन्य कोई प्रमाणरूप वस्तु प्रतीति में नहीं आती है । यदि आप ( जैन ) ऐसा कहें कि
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