Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ब्रह्माद्वैतवादः
१८५ चाशेषं चेतनाचेतनरूप वस्तु' इत्यनुमानादप्यात्माऽद्वतप्रसिद्धिः । न चात्राऽसिद्धो हेतुः; साक्षादसाक्षाच्चाशेषवस्तुनोऽप्रतिभासमानत्वे सकलशब्दविकल्पगोचरातिकान्तया वक्त मशक्तः । तथागमोऽप्यस्य प्रतिपादकोऽस्ति ।
"सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ।
पारामं तस्य पश्यन्ति न त पश्यति कश्चन ॥" [ ] इति । तथा "पुरुष एवैतत्सर्वं यद्भूत यच्च भाव्यं स एव हि सकललोकसर्गस्थितिप्रलयहेतुः।" [ ऋक्सं० मण्ड० १० सू० ६० ऋ० २] उक्तञ्च
"ऊर्णनाभ इवांशूनां चन्द्रकान्त इवाम्भसाम् ।
प्ररोहाणामिव प्लक्षः स हेतुः सर्वजन्मिनाम् ।।" [ ] भेदशिनो निन्दा च श्र यते"भृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति ।" [ बृहदा• उ० ४/४/१६ ] इति । न चाभेदप्रतिपादकाम्नायस्याऽध्यक्षबाधा; तस्याप्यभेदग्राहकत्वेनैव प्रवृत्तः । तदुक्तम्
भी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष से या परोक्ष से किसी भी प्रकार से वस्तु को प्रतिभासमान स्वरूप नहीं मानोगे तो संपूर्ण शब्दों के अगोचर हो जाने से वस्तु को कहा ही नहीं जा सकेगा। प्रागम भी अनुमान की तरह ब्रह्म का प्रतिपादक है । श्लोकार्थ- “यह सारा विश्व ब्रह्मरूप है, कोई भिन्न भिन्न वस्तु नहीं है, दुनिया के जीव उस ब्रह्म के विवर्ती को-पर्यायों को देखते हैं किन्तु उसे कोई नहीं देख सकता" ॥ १ ॥
जगत पुरुषमय है, जो हुअा अथवा होनेवाला है वह सब ब्रह्म ही है, वही सारे संसार की उत्पत्ति स्थिति और विनाश का कारण है, कहा भी है, श्लोकार्थ
जैसे रेशमी कीड़ा रेशम के धागे को बनाता है, चन्द्रकान्तमणि जैसे जल को झराता है और वटवृक्ष जैसे जटाओं को अपने में से स्वयं निकालता है अत: वह उनका कारण होता है वैसे ही ब्रह्म समस्त जीवों का कारण होता है ।। १ ।।
शास्त्र में भेद-द्वत माननेवाले की निन्दा भी की गई है-जैसे-जो भेद को देखता है वह यमराज का अतिथि बनता है, अभेद-प्रतिपादक आगममें प्रत्यक्ष से बाधा नहीं पाती है, क्योंकि प्रत्यक्ष भी स्वयं अभेद का ग्राहक है। कहा भी है
__ श्लोकार्थ – बुद्धिमान् लोक प्रत्यक्ष को विधिरूप ही मानते हैं निषेधरूप नहीं मानते, इसलिये अभेद प्रतिपादक पागम में प्रत्यक्ष के द्वारा बाधा नहीं आती है ॥१॥
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