Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
प्रवेशश्च । ताभ्यामेकत्वस्य सर्वथाऽभेदे अनुभूतग्राहित्वं प्रत्यभिज्ञानस्य स्यात् । ताभ्यां तस्य कथञ्चिदभेदे सिद्ध तस्य (कथञ्चिद्) अनुभूतार्थग्राहित्वम् । न चैवंवादिनः प्रत्यभिज्ञानप्रतिपन्ने शब्दादिनित्यत्वे प्रवर्त्तमानस्य "दर्श नस्य परार्थत्वात्" [जैमिनिसू० १/१८] इत्यादेः प्रमाणता घटते । सर्वेषां चानुमानानी व्याप्तिज्ञानप्रतिपन्ने विषये प्रवृत्त रप्रमाणता स्यात् । प्रत्यभिज्ञानान्नित्यशब्दादिसिद्धावपि कुतश्चित्समारोपस्य प्रसूतेस्त व्यवच्छेदार्थत्वादस्य प्रामाण्ये च एकान्तत्यागः । स्मृत्यूहादेश्चाभिमतप्रमाणसंख्याव्याघातकृत्प्रमाणान्तरत्वप्रसङ्गः स्यात् ; प्रत्यभिज्ञानवत्कथंचिदपूर्थित्वसिद्धः। किञ्च,
अवस्था को जानने वाले स्मृति और प्रत्यक्ष से जन्यमान वह प्रत्यभिज्ञान प्रवृत्त नहीं होता है, जैसे कि और दूसरे नहीं जाने हुए पदार्थों के एकत्व में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती है, तथा-उन पूर्वोत्तर अवस्थाओं से एकत्व को सर्वथा भिन्न माना जाता है तो ऐसी मान्यता आपका मतान्तर-नैयायिकके मत में प्रवेश होने की सूचना देती है। यदि उन पूर्व और उत्तर कालीन पर्यायों से प्रत्यभिज्ञान का विषय जो एकत्व है वह सर्वथा अभिन्न है ऐसा माना जावे तो वह प्रत्यभिज्ञान जाने हुए को ही जानने वाला हो जाता है। यदि आप पूर्वोत्तर अवस्थाओं से एकत्व का कथंचित अभेद है ऐसा स्वीकार करते हैं तो वह प्रत्यभिज्ञान कथंचित् ग्रहीतग्राही ( अनुभूतग्राही ) सिद्ध हो जाता है।
दूसरी बात यह भी है कि सर्वथा अपूर्वार्थ को प्रमाण विषय करता है अर्थात् प्रमाण का विषय सर्वथा अपूर्वार्थ ही होता है ऐसा मानने वाले आपके यहां प्रत्यभिज्ञान से जाने हुए शब्द आदि का धर्म जो नित्यत्व आदि है उसमें प्रवृत्त हुए ज्ञान में सत्यता कैसे रहेगी? और कैसे आपका "दर्शनस्य परार्थत्वात्" यह कथन सत्य सिद्ध होगा?
भावार्थ-शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिये प्रभाकर जैमिनि ने अनेक हेतु दिये हैं, उनमें से "नित्यस्तु स्यादु दर्शनस्य परार्थत्वात्" शिष्य को समझाने के लिये बार बार उच्चारण में आने से भी शब्द नित्य है ऐसा कहा गया है, सूत्रस्थ दर्शन शब्द का अर्थ "शब्द" है, सो यदि प्रभाकर प्रमाण का विषय सर्वथा अपूर्व ही मान रहे हैं तो आचार्य कह रहे हैं कि जब शब्द की नित्यता बार २ उच्चारण से सिद्ध होती है तब वह अपूर्व कहां रहा, मतलब कर्णेन्द्रिय से जब वह प्रथम बार ग्रहण किया गया तब तो वह अपूर्व ही है, किन्तु बार २ ग्रहण किये जाने पर उसमें
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