Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विपर्ययज्ञाने अख्यात्यादिविचारः
एतेन विपर्ययनिरासोपि निराकृतः । तत्राप्युत्पादककारणादेः सद्भावाविशेषात् । किंच, अयं विपर्ययोऽख्यातिम्, असख्यातिम्, प्रसिद्धार्थख्यातिम्, प्रात्मख्यातिम्, सदसत्त्वाद्यनिर्वचनीयार्थख्यातिम्, विपरीतार्थख्यातिम्, स्मृतिप्रमोषं वाभिप्रेत्यनिराक्रियेत प्रकारान्तराऽसम्भवात् ?
___ अख्याति चेत् ; तथा हि-जलावभासिनि ज्ञाने तावन्न जलसत्तालम्बनीभूतास्ति अभ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । जलाभावस्त्वत्र न प्रतिभात्येव ; तद्विधिपरत्वेनास्य प्रवृत्तेः । अत एव मरीचयोऽपि नालम्बनम् ; तत्त्वे वा तद्ग्रहणस्याभ्रान्तत्वप्रसङ्गः । तोयाकारेण मरीचिग्रहणमित्यप्ययुक्तम् ; तदन्यत्वात् । न खलु घटाकारेण तदन्यस्य पटादेग्रहणं दृष्टम् । ततो निरालम्बनं जलादिविपर्ययज्ञानम् ; इत्यप्यविचा
अब हम जैन विपर्यय ज्ञानको अनेक तरहसे विपरीत मानने वाले चार्वाक, सौत्रान्तिक आदिसे विपर्ययका स्वरूप पूछते हैं कि क्या विपर्यय ज्ञान अख्याति रूप है [चार्वाक के प्रति ] अथवा असतख्यातिरूप है [ सौत्रान्तिक माध्यमिकके प्रति ] या प्रसिद्धार्थख्यातिरूप है [ सांख्य, वेदान्ती, भास्करीयके प्रति ] या आत्मख्यातिरूप है [ विज्ञानाद्वैतवादी-योगाचारके प्रति ] या सत् असत् रूपसे अनिर्वचनीय होनेसे अनिर्वचनीयार्थख्यातिरूप है [ शांकर, ब्रह्माद्वैत, मायावादीके प्रति ] या विपरीतार्थ ख्याति रूप है [ नैयायिक, वैशेषिक, भाट्ट, वैभाषिक के प्रति ] या स्मृति प्रमोष रूप है ? [ प्रभाकरके प्रति ] इतनी मान्यताओंको लेकर विपर्यय ज्ञानका खण्डन किया जा सकता है, अन्य कोई खण्डनका प्रकार नहीं है । प्रथम पक्ष अख्यातिरूप है, इस संबंधमें चार्वाक कहता है कि मरीचिकामें जायमान जल ज्ञानमें जलकी सत्ताका तो अवलंबन है नहीं, यदि होता तो वह ज्ञान सत्य कहलाता, इसी तरह जलाभाव भी नहीं है, क्योंकि ऐसा प्रतीत कहां है ? वहां तो "जल है" ऐसी विधिरूपसे उस ज्ञानकी प्रवृत्ति हो रही है, तथा इसी कारणसे मरीचिका भी उस ज्ञानका विषय नहीं है, यदि
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