Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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स्मृतिप्रमोषविचारः
१५३
पुरोव्यवस्थितार्थप्रतिभासनम् 'रजतम्' इति च पूर्वावगत रजतस्मरणं सादृश्यादेः कुतश्चिन्निमित्तात् । तच्च स्मरणमपि स्वरूपेण नावभासत इति स्मृतिप्रमोषोऽभिधीयते । यत्र हि 'स्मरामि' इति प्रत्ययस्तत्र स्मृतेरप्रमोषः, न पुनर्यत्रस्मृतित्वेऽपि स्मरामि' इति रूपाप्रवेदनम् । प्रवृत्तिश्च भेदाऽग्रहणा देवोपपन्ना। ननु कोऽयं तदग्रहो नाम ? न तावदेकत्वग्रहः; तस्यैव विपर्ययरूपत्वात् । नापि तद्ग्रहणप्रागभावः; तस्याऽप्रवृत्तिहेतुत्वात्, प्रवृत्तिनिवृत्त्योः प्रमाणफलत्वादिति चेत् ; न; भेदाऽग्रहणसचिवस्य रजतज्ञानस्य प्रवृत्तिहेतुत्वोपपत्तेरिति । उसे स्मृति प्रमोष कहते हैं । जहां "स्मरण करता हूं" ऐसी झलक हो वहां तो स्मृति प्रमोष नहीं है, किन्तु जहां स्मृतिरूपता होते हुए भी "स्मरण करता हूं" ऐसी झलक न हो वह तो स्मृतिका प्रमोष ही है "यह रजत है" ऐसे ज्ञानके होनेपर जो प्रवृत्ति होती है वह तो भेदको न जाननेसे अर्थात् भेदके अग्रहरणसे होती है। अब भेदका अग्रहण क्या है ? इसपर सोचें-एक रूपसे दोनोंका ग्रहण होना यह भेद अग्रहण है, सो ऐसा मानना इसलिये ठीक नहीं कि वह विपरीत ख्याति रूप कहलायेगा। भेद ग्रहणके प्रागभावको भेदका अग्रहण कहना भी संगत नहीं बैठता क्योंकि प्रागभाव प्रवृत्तिका कारण नहीं हुआ करता । कोई कहे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति कराना तो प्रमाणका फल है प्रागभावका यह फल नहीं है । सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं कारण कि भेदका अग्रहण है सहायक जिसका ऐसा रजत ज्ञान ही प्रवृत्तिका हेतु होता है। इस प्रकार भेदके अग्रहण में कारण जो स्मृति प्रमोष है उसके निमित्तसे हुआ रजत प्रतिभास ही प्रवृत्तिका अर्थात् “यह चांदी है" ऐसा भान होते ही उसमें ग्रहणकी जो प्रवृत्ति होती है उसका कारण है । इसप्रकार "इदं रजतं" इत्यादि ज्ञान स्मृति प्रमोष लक्षण वाले हैं।
विशेषार्थ- "इदं रजतं" यह प्रतिभास दो ज्ञानरूप है, "इदं" यह प्रत्यक्षरूप है, और "रजतं" यह स्मरणरूप है । यह स्मरण अपने' स्वरूपसे प्रतीत नहीं होता है, अर्थात् रजतका स्मरण करता हूं ऐसी प्रतीति नहीं आनेसे वह स्मृति प्रमोष कहलाता है । इस ज्ञानमें वस्तुको ग्रहण करनेकी जो प्रवृत्ति होती है वह तो विवेक नहीं होनेसे अर्थात् सीप और चांदी का सम्यग्बोध न होने से होती है "इदं रजतं" यह ज्ञान यद्यपि सत्य रजत ज्ञानसे भिन्न है, तथापि दोनोंका भेद मालूम न होनेसे ऐसा होने लग जाता है। "इदं रजतं" "इदं जलं' अर्थात सीपमें यह चांदी है ऐसा प्रतिभास होना, मरीचिमें यह जल है ऐसा प्रतीत होना विपर्णय ज्ञान है, और इसका दो वस्तुओंकी समानता, पदार्थका दूरवर्ती रहना, कुछ इन्द्रियोंकी सदोषता आदि है ऐसा जैन कहते
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