Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विपर्ययज्ञाने प्रख्यात्यादिविचारः
१४७
स्थितत्वेन रजताद्याकारस्य संवेदनेन च सुखाद्याकारवबहिष्ठतया प्रतीतिर्न स्यात् । प्रतिपत्ता च तदुपादानार्थं न प्रवर्तेत, अबहिष्ठाऽस्थिरत्वेन प्रवृत्त्य विषयत्वात् । अथाविद्योपप्लववशादबहिष्ठस्थिरत्वेनाध्यवसायः; कथमेवं विपरीतख्यातिरेव नेष्टा, ज्ञानादभिन्नस्यास्थिरस्य चाकारस्या न्यथाध्यवसायाभ्युपगमादिति ?
___ यच्चोच्यते-न ज्ञानस्य विषय उपदेशगम्योऽनुमानसाध्यो वा येन विपरीतोऽर्थः कल्प्येत । कि तहि ? यो यस्मिन् ज्ञाने प्रतिभाति स तस्य विषय इत्युच्यते । जलादिज्ञाने च जलाद्यर्थ एव प्रतिभाति न तद्विपरीतः, जलादिज्ञानव्यपदेशाभावप्रसङ्गात् स च जलाद्यर्थः सन्न भवति; तबुद्ध रभ्रान्तत्वप्रसङ्गात् । नाप्यसन् ; खपुष्पादिवत्प्रतिभासप्रवृत्त्योरविषयत्वानुषङ्गात् । नापि सदसद्र पः; उभयदोषानुषङ्गात्, सदसतोरैकात्म्यविरोधाच्च । तस्मादयं बुद्धिसन्दर्शितोऽर्थः सत्त्वेनासत्त्वेनान्येन वा धर्मा
करेगा ? क्योंकि ज्ञानके अन्दर ही तो वह प्राकार ( वस्तु ) है ? तथा वह आकार ज्ञानके अस्थिर होनेसे अस्थिर है, अत: उसमें उठाना, रखना आदिरूप ज्ञाता मनुष्यकी प्रवृत्ति होती है वह कैसे होगी ? अर्थात् नहीं हो सकती। तुम कहो कि अनादि अविद्याके कारण उस ज्ञानाकारकी बाहरी वस्तुरूपसे एवं स्थिर रूपसे अनुभव होता है, सो ऐसा माननेसे तो विपरीतार्थ ख्याति ही तुम्हारे द्वारा मान्य हुई ? क्योंकि ज्ञानसे अभिन्न अस्थिर (क्षणिक) और बाहर में स्थित रूपसे अध्यवसाय हुआ, सो ऐसा अध्यवसाय ही तो विपरीतार्थ ख्याति है और इसे आपने मान लिया है ?
शंकर मतवाले कहते हैं कि इस विपर्यय ज्ञानका जो विषय है वह उपदेश गम्य या अनुमान गम्य तो है नहीं, जिससे कि उसको जैन लोग विपरोत मानते हैं, बात तो यह है कि जो जिस ज्ञानमें झलकता है वह उसीका विषय माना जाता है । जलादिके ज्ञानमें जलादिक ही प्रतीत होते हैं इससे विपरीत और कोई नहीं । यदि दूसरा विषय होता तो "जलका ज्ञान" यह नाम कैसे आता ? वह जलादि विषय सत तो है नहीं यदि होता तो उसको जाननेवाला ज्ञान सत्य हो जाता, तथा उस विपर्ययज्ञानका विषय असत भी नहीं है, क्योंकि असत होता तो वह आकाशके पुष्प की तरह प्रतिभासित नहीं होता। सत-असत दोनों रूप मानों तो दोनों पक्षके प्रदत्त दूषण आयेंगे । तथा सत असतका तादात्म्य भी नहीं है । इसलिए यह बुद्धिके द्वारा ग्रहण किया गया जो विषय है वह सत-असत आदि किसी भी स्वभावसे कहा नहीं जा सकता, अतः यह ज्ञान तो अनिर्वचनीयार्थ ख्याति रूप है ऐसा मानना चाहिये ?
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