Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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विपर्ययज्ञाने प्रख्यात्यादिविचारः
ननु विपरीतख्यातिरपि प्रतिभासविरोधान्न युक्त तिः । क एवमाह-'विपरीतोऽयमर्थः । इप्ति ख्यातिः ? कि तहि ? पुरुषविपरीते स्थाणौ 'पुरुषोऽयम्' इति ख्यातिविपरीतख्याति: । ननु पुरुषावभासिनि ज्ञाने स्थाणोरप्रतिभासमानस्य विषयत्वमयुक्त सर्वत्राप्यव्यवस्थाप्रसङ्गोता; तदयुक्तम् ; यतैः स्थाणुरेवात्र ज्ञाने तद्र पस्यानवधारणादधर्मादिवशाच पुरुषाघाकारेगाध्य वसीयते । बाधोत्तरकालं हि प्रेतिसन्धत स्थाणुरयं मे पुरुषः' इत्येवं प्रतिभात इति, कथमेवं "विपर्यय निरासः तस्या एव तद्र प
समाधान- यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि स्थाणु ही उस विपर्यय ज्ञानमें उसके स्वरूपका अवधारण न होनेसे काच कामलादि दोषके प्रभावसे पुरुषाकार रूप प्रतीत होता है, पीछे उत्तर काल में बाधित होता है कि यह तो स्थाणु [ट] है मेरे को पुरुष रूपसे मालुम पड़ा था इत्यादि । इसलिये इस ज्ञानको विपरीतपना कैसे नहीं? है ही, यही तो विपरीतार्थ ख्याति है। मतलब जैन दार्शनिकोंने विपर्यय ज्ञानको विपरीत विषय वाला माना है, विपर्यय ज्ञानका लक्षण यही है कि दूरवर्ती होने आदि के कारण स्थाणु और पुरुषके कुछ समान धर्मोको लेकर स्थाणुमैं पुरुषाकारका प्रतिभास होना। इसीतरह सीपमें चांदीका भान, मरीचिकामें जलकी प्रतीति, रस्सी में सर्पका ज्ञान ये सभी विपर्यय ज्ञान हैं। प्रभाकर मतमें माना गया जो स्मृति प्रमोष है उसके द्वारा इस विपर्यय ज्ञानका खण्डन होना अशक्य है, क्योंकि स्मृति प्रमोष ही प्रसिद्ध है।
भावार्थ:-शंकर मतवाले विपर्यय ज्ञानको सदसत्-अनिर्वचनीयार्थ ख्याति रूप मानते हैं, उनका कहना है कि विपर्यय ज्ञानके विषयको असत नहीं कह सकते, क्योंकि उसका प्रतिभास होता है, तथा सत भी नहीं कह सकते क्योंकि उस ज्ञानमें आगे जाकर बाधा पाती है। शंकर मतवालेको विज्ञानाद्वैतवादी ने कहा था कि विपर्यय ज्ञानका विषय आत्म ख्याति है अर्थात् ज्ञानका ही आकार है । विपर्यय हो चाहे और कोई ज्ञान हो, सभी ज्ञानोंमें अपना ही आकार रहता है, क्योंकि ज्ञानको छोड़कर दूसरा पदार्थ ही नहीं है । अनादि अविद्याके कारण बाहर में अनेक आकार या पदार्थ दिखायी देते हैं ? जैनाचार्यने विज्ञानाद्व तवादीको इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि अभी आपका विज्ञानाद्वैत सिद्ध नहीं है, और प्रागे हम उसका भली प्रकारसे निरसन करेंगे, अतः आत्मख्यातिको विपर्यय ज्ञान मानना प्रसिद्ध है। अनिर्वचनीयार्थ ख्याति भी असत्य है, क्योंकि यदि विपर्यय ज्ञानका विषय अनिर्वचनीय [ वचन के द्वारा नहीं कह सकना ] होता तो "इदं जलं" यह जल है, इत्यादि प्रतिभास तथा तदनु
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