Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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१३.
प्रमेयकमलमार्तण्ड देशकालस्वभावव्यापारावस्थादिभेदाभावः प्रतिभासभेदाभावश्चानुषज्येत-एकस्वभावाच्छब्दब्रह्मणोऽभिन्नत्वात्तत्स्वरूपवत् । तन्नशब्दपरिणामरूपत्वाजगतः शब्दमयत्वम् ।
नापि शब्दादुत्पत्तेः, तस्य नित्यत्वेनाविकारित्वात्, क्रमेण कार्योत्पादविरोधात् सकलकार्याणां युगपदेवोत्पत्तिः स्यात् । कारणवै कल्याद्धि कार्याणि विलम्बन्ते नान्यथा । तच्चेदविकलंकिमपरं तैरपेक्ष्यं येन युगपन्न भवेयुः ? किंच, अपरापरकार्य ग्रामोऽतोऽर्थान्तरम्, अनर्यान्तरं वोत्पद्यत ? तत्रा
"एक ब्रह्म जब अनेक पदार्थरूप परिणमित होता है तब वह प्रत्येक पदार्थ के रूपसे भेदपने को प्राप्त नहीं होता है," सो ऐसा मानना भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि नील, पीत, जड़, चेतन आदि जितने भी पदार्थ हैं, इस मान्यता के अनुसार उनमें सबमें अभेद आ जाने के कारण देशभेद, कालभेद, स्वभावभेद, क्रियाभेद और अवस्था भेद नहीं रहेंगे।
भावार्थ- सारा विश्व शब्दब्रह्म से निर्मित है, शब्दब्रह्म ही पदार्थ रूप परिणमन कर जाता है ऐसा माना जाय तो प्रश्न होता है कि एक अखंड शब्द ब्रह्म घट, पट, देवदत्त आदिरूप परिणमन करता है सो प्रत्येक पदार्थ रूप भिन्न भिन्न होता है या नहीं ? होता है तो एक शब्द ब्रह्म कहां रहा ? वह तो अनेक हो गया ? यदि नाना पदार्थ रूप नहीं होता तो यह प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाला देशादिभेद समाप्त होगा। किन्तु देश भेद आदिसे वस्तुओंमें विभिन्नता उपलब्ध हो रही है-यह वस्त्र कौशांबीका है और यह उज्जनका इत्यादि देशनिमित्तक वस्तु भेद, यह बालक दो वर्षीय है और यह दस वर्षीय इत्यादि काल निमित्तक वस्तु भेद, यह शीतल जल है और यह उष्ण अग्नि है इत्यादि स्वभावनिमित्तक वस्तुभेद, देवदत्त ग्राम जाता है, गोपाल गाय को दुहता है इत्यादि क्रिया निमित्तक भेद तथा यह वस्त्र जीर्ण हुप्रा और यह नया है इत्यादि अवस्था निमित्तक वस्तु भेद साक्षात् दिखायी दे रहा है अतः शब्द ब्रह्म विश्वरूप परिणमता हुआ भी प्रत्येक पदार्थ रूप नहीं होता है ऐसा कहना असत्य ठहरता है । तथा प्रतिभासों में भिन्नता का अभाव भी प्रसक्त होता है, जैसा कि शब्दब्रह्म का स्वरूप शब्दब्रह्म से अभिन्न होने के कारण उसमें भेद का अभाव माना गया है, उसी प्रकार शब्दब्रह्म से अभिन्न हुए नीलादिपदार्थों में भिन्नता-अनेकता-कथमपि नहीं आ सकती, अत: ऐसा मानना कि शब्दब्रह्म का परिणाम होनेसे जगत् शब्दमय है सर्वथा असत्य-न्यायसंगत नहीं है। द्वितीय पक्ष जो ऐसा कहा गया है कि जगत् की उत्पत्ति शब्दब्रह्म से होती है, अतः वह शब्दमय है-सो ऐसा कहना भी न्याय की
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