Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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शब्दाद्वै तविचारः
वक्ता के कण्ठ, तालु आदि स्थानों में प्राणवायु की सहायता से जो ककारादि वर्ण या स्वर उत्पन्न होते हैं - व्यक्त होते हैं वह वैखरीवाक् है, अन्तरङ्ग में जो जल्परूपवाक् है वह मध्यमावाक् है । यह वैखरी और पश्यन्ती के बीच में होती है, अतः उसे मध्यमा कहा गया है, जिसमें ग्राह्य भेद का क्रम नहीं होता अर्थात् ककारादि के क्रम से जो रहित होती है- केवल ज्ञानरूप जो है - ग्राह्यग्राहक, वाच्य वाचक का विभाग जिसमें प्रतीत नहीं होता वह पश्यन्ती वाक् है, सूक्ष्मावाक् ज्योतिः स्वरूप है, इसमें अत्यन्त दुर्लक्ष्य कालादि का भेद नहीं होता, इसी सूक्ष्मावाक् से समस्त विश्व व्याप्त है, यदि ज्ञान में वाक्रूपता की अनुविद्धता न हो तो वह अपना प्रकाश ही नहीं कर सकता, शब्द ब्रह्म तो अनादिनिधन है और अक्षरादि सब उसके विवर्त्त हैं, विश्व के समस्त पदार्थ उसी शब्द ब्रह्म की पर्यायें I
इस प्रकार का मन्तव्य शब्दाद्वैतवादी का है, इस पर युक्तिपूर्वक गहरा विचार करते हुए मार्तण्डकार श्रीप्रभाचन्द्राचार्य ने कहा है कि शब्दानुविद्ध होकर ही यदि ज्ञान हो तो नेत्रादि के द्वारा जो ज्ञान होता है उसमें शब्दानुविद्धता होनी चाहिये, क्यों नहीं होती ? कर्ण जन्यज्ञान को छोड़कर शब्दानुविद्धता और किसी ज्ञान में नहीं पाई जाती है, ऐसा ही प्रतीति में आता है ।
हम आपसे यह पूछते हैं कि ज्ञानकी यह शब्दानुविद्धता किस प्रमारण से जानी जाती है ? क्या प्रत्यक्ष से या अनुमान से ? यदि प्रत्यक्ष से जानी जाती है ऐसा आप कहो तो वह कौनसा प्रत्यक्ष है - इन्द्रियप्रत्यक्ष है या स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, इन्द्रिय प्रत्यक्ष की तो यह ज्ञानगत शब्दानुविद्धता विषय होती नहीं है, क्योंकि नेत्र से जो नीलादिपदार्थ का प्रतिभास होता है वह शब्दानुविद्ध नहीं होता, वह तो शब्दरहित ही होता है स्वसंवेदन प्रत्यक्ष का विषय शब्द है नहीं अतः इससे भी वह वहां सिद्ध नहीं होती है, अत: जब ज्ञान में शब्दानुविद्धता सिद्ध नहीं हुई तब शब्दाद्वैतवादी उसे प्रथंगत मानने लग जाते हैं, किन्तु वह भी सिद्ध नहीं होती, इसकी सिद्धि तो तब ही हो सकती है कि जब पदार्थ का देश और शब्द का देश एक हो, किन्तु ऐसा अभिन्नपता है नहीं, यदि ऐसा होता तो अग्नि आदि शब्द का उच्चारण करते ही उच्चारणकर्त्ता का मुख और श्रवणकर्त्ता के कान जलने लग जाते, क्योंकि वह अग्निशब्द अग्निपदार्थ रूप जो अपना वाच्य है उसके साथ ही अविनाभावी है, वह उस सहित ही है, ऐसा आपका सिद्धान्त है, जब कि पदार्थ और शब्द भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के द्वारा विषयभूत किये जाते हैं, तब शब्द और अर्थ का तादात्म्य सम्बन्ध सिद्ध ही नहीं होता है, इसी तरह जगत् शब्दमय है यह कथन भी प्रत्यक्ष से बाधित होता है,
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