Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे "यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्णमिव मात्राभिश्चित्राभिरभिमन्यते ॥
[ बृहदा० भा० वा० ३।५।४३ ] तथेदममलं ब्रह्मनिर्विकारम विद्यया। कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रपश्यति" ।।
[ बृहदा० भा० वा० ३।५।४४] इति । तदप्यसाम्प्रतम् ; अत्रार्थे प्रमाणाभावात् । न खलु यथोपरिणतस्वरूपं शब्दब्रह्म प्रत्यक्षतः प्रतीयते, सर्वदा प्रतिनियतार्थस्वरूपग्राहकत्वेनैवास्य प्रतीतेः । यच्च-अभ्युदयनिश्रेयसफलधर्मानुगृहीतान्तःकरणा
शब्दाद्वैतवादी-यथार्थतः शब्दब्रह्म तो अनादि निधन ही है, उसके स्वभावमें किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है फिर भी अविद्यारूपी अंधकार से युक्त प्राणी उस शब्द रूप ब्रह्म को उत्पत्ति और विनाश की तरह कार्यों के भेद से नानारूप वाला मानता है, कहा भी है-“यथा विशुद्धमप्याकाशं इत्यादि" जैसे विशुद्ध अाकाश को प्रांख का रोगी अनेक वर्णवाली रेखाओं से धूसर देखता है ॥ १॥ उसी प्रकार निर्मल, निर्विकार शब्दब्रह्म को अविद्या के कारण जन अनेक भेदरूप देखता है, ऐसा वृहदारण्यक भाष्य में कहा है।
जैन-यह कथन अयुक्त है, क्योंकि ऐसे कथन में प्रमाण का अभाव है, जैसा आपके सिद्धान्तमें वर्णित ब्रह्म का स्वरूप है वह किसी भी प्रमाण से प्रतीत नहीं होता है, इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाण की जो प्रवृत्ति होती है वह तो समक्ष उपस्थित हुए अपने नियत विषय में ही होती है, शब्दब्रह्म ऐसा है नहीं, फिर उसमें उसकी प्रवृत्ति कैसे हो सकती है, यदि ऐसा कहा जावे कि भले ही हम अल्पज्ञजनों के प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति शब्दब्रह्म के साक्षात्कार करने में न हो तो कोई बात नहीं, पर जिनका अन्तःकरण अभ्युदय एवं निःश्रेयस फल वाले धर्म से अनुगृहीत है ऐसे वे योगीजन तो उसे साक्षात् देखते हैं, सो ऐसा कथन भी सदोष है-कहना मात्र ही है-कारण कि शब्दब्रह्म के सिवाय और कोई उससे भिन्न योगिजन वास्तविकरूप में हैं ही नहीं; कि जिससे वे उसे साक्षात् देखते हैं ऐसा आपका मन्तव्य मान्य हो सके । तथा वे योगी उसे देखें भी तब जब कि उनके ज्ञान में शब्दब्रह्म का व्यापार हो, परन्तु पूर्वोक्तप्रकार से कार्य में शब्दब्रह्म का व्यापार ही घटित नहीं होता, तथा ऐसा जो कहा गया है कि
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