Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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सन्निकर्षवाद।
होता है, इस प्रकार यह प्रक्रिया जल्दी से होकर उससे प्रमितिरूप अर्थात् जाननारूप फल उत्पन्न होता है। हर पदार्थ को इन्द्रियां छुकर ही जानती हैं । जो छूना है वह सन्निकर्ष है, उसके बिना कोई भी ज्ञान पैदा नहीं होता है, अतः सन्निकर्ष प्रमाण है। वही प्रमिति की उत्पत्ति में साधकतम है, इसलिये ईश्वर हो चाहे हम लोग हों सभी को सन्निकर्ष से ज्ञान होता है ।
इस वैशेषिक के मन्तव्य का प्राचार्य ने बड़े ही अच्छे ढंग से निरसन किया है, सन्निकर्ष का ज्ञान के साथ साधकतमपना सिद्ध नहीं होता है । यदि सर्वत्र सन्निकर्ष से ही ज्ञान पैदा होता तो भले ही उसे साधकतम मानते किन्तु ऐसा नहीं है । देखिये-चक्षु और मन तो बिना सन्निकर्ष के ही प्रमिति पैदा कर लेते हैं।
अांखें पदार्थ को बिना छुए ही उसके रूप को जान लेती हैं, इस विषय का वर्णन इसी ग्रन्थ में सयुक्तिक हुआ है, सन्निकर्ष यदि सब जगह प्रमिति पैदा करता है तो वह आकाश में भी प्रमिति क्यों नहीं करता, क्योंकि जैसे इन्द्रियों का घट और उसके रूप, रस, तथा रूपत्व, रसत्व के साथ संबंध है वैसे ही आकाश और उसका शब्द तथा शब्दत्व के साथ भी इन्द्रियों का संबंध है, फिर क्या बात है कि हम आकाश को नहीं जानते । अमूर्तिकपने की दलील भी गलत है । जिसको जानने की योग्यता है उसी में सन्निकर्ष प्रमिति को पैदा करता है, सब में नहीं, ऐसा वैशेषिक का कथन भी विशेष लक्ष देने योग्य नहीं है क्योंकि योग्यता क्या बला है, यह पहले बताना चाहिये यदि शक्ति को योग्यतारूप कहोगे तो यह बात बनने की नहीं, क्योंकि आपने शक्ति को अतीन्द्रिय नहीं माना है, यदि सहकारी कारणों की निकटता को योग्यता रूप कहोगे तो वह सारी निकटता घर की तरह आकाश में भी है। हां, यदि प्रमाता के प्रतिबंधक कर्म के अभाव को योग्यता मानकर उस योग्यता को ही साधकतम मानो तो बात ठीक है, उसी का प्रमिति में उपयोग है, सन्निकर्ष को प्रमाण मानने में एक बड़ा भारी दोष यह आता है कि सर्वज्ञ का अभाव हो जाता है । सर्वज्ञ का ज्ञान इन्द्रिय के द्वारा छूकर होगा तो उसे तीन काल में भी सारे पदार्थों का ज्ञान होगा नहीं, क्योंकि पदार्थ अनन्त हैं। योगज धर्म भी इन्द्रियों को अतिशय युक्त नहीं कर सकता।
“यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलंघनात्" इन्द्रियों में कितना भी अतिशय आ जावे तो भी वह तो अपने ही विषय को ग्रहण करेगी। क्या प्रांखें रस
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