Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे
निवृत्तिप्रतीतेः । कदाचिदर्थप्रापकत्वाभावस्तु-प्रत्यक्षेपि समानोऽनथित्वादप्रवृत्तस्याद्यप्रत्यक्षवत् । कदाचिद्विसंवादादित्यप्यसाम्प्रतम् ; प्रत्यक्षेप्यप्रामाण्य प्रसङ्गात्, तिमिराद्य पहतचक्षुषोऽर्थाभावेपि प्रत्यक्षप्रवृत्तिदर्शनात् । भ्रान्तादभ्रान्तस्य भेदोऽन्यत्रापि समानः । समारोपानिषेधकत्वादित्यप्यसङ्गतम् ; विकल्पविषये समारोपासम्भवात् । नापि व्यवहारायोग्यत्वात् ; सकलव्यवहाराणां विकल्पमूलत्वात् । स्वलक्षणाऽगोचरत्वादित्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; अनुमानेपि तत्प्रसक्तः तद्वत्तस्यापि सामान्यगोचरत्वात् । न च तद्ग्राह्यस्य सामान्यरूपत्वेप्यध्यवसेयस्य स्वलक्षणरूपत्वाद् दृश्य विकल्प्यावावेकीकृत्य
होता किन्तु अतीत अनागत काल में तो है, ऐसे होते हुए भी अप्रमाण कहो तो प्रत्यक्ष भी अप्रमाण होगा क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय भी प्रत्यक्ष के समय में नहीं होता है ।
चौथा पक्ष-हिताहित प्राप्ति परिहार करने में विकल्प ज्ञान असमर्थ है ऐसा कहना तो असंभव है क्योंकि विकल्प से ही इष्टार्थ की प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार होता है । यदि कभी-कभी विकल्प के द्वारा अर्थ प्रापकता नहीं होती है अत: उसको अप्रमाण मानते हैं ऐसा कहो तो कभी-कभी अर्थ प्रापकता का अभाव प्रत्यक्ष में भी देखा जाता है । देखिये "इदं जलं" यह जल है, इस प्रकार किसी को पहली बार जल का ज्ञान हुआ, वह व्यक्ति जल का इच्छुक नहीं है तो वह उस ज्ञान से अर्थ में अर्थात् जल में प्रवृत्ति नहीं करता है तब क्या वह जल ज्ञान मात्र अर्थ प्रापक न होने से अप्रमाण कहलायेगा ? अर्थात् नहीं। अतः कदाचित् अर्थ प्रापक न होने से विकल्प अप्रमाण है यह बात सिद्ध नहीं होती है ।
पांचवा पक्ष-विकल्प में कभी-कभी विसंवाद रहता है यह पक्ष भी गलत है, कभी-कभी विसंवाद तो प्रत्यक्ष में भी होता है। देखो-तिमिर रोगादिसे युक्त नेत्र पदार्थ के अभाव में भी उस पदार्थ को दिखाने में प्रवृत्त होते हैं । क्या वह नेत्र ज्ञान संवादक है ? कहो कि वह भ्रांत प्रत्यक्ष है, अभ्रांत में ऐसा नहीं होता तो विकल्प में भी यही बात है । वहां भ्रांत विकल्प और अभ्रांत विकल्प ऐसा भेद तो है ही।
छठा पक्ष-विकल्प समारोप का निषेध नहीं करता यह कथन भी विकल्प में असंभव है, उल्टे विकल्प में तो समारोप आता ही नहीं।
सातवां पक्ष-विकल्प व्यवहार के उपयोगी नहीं ऐसा पक्ष बनेगा ही नहीं क्योंकि विकल्प ही सारे व्यवहारों का मूल है ।
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