Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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शब्दाद्वैतवाद - पूर्वपक्ष
श्री भर्तहरि आदि वेदान्तवादियों ने समस्त विश्व को शब्दरूप माना है, उनका मन्तव्य उत्तर पक्ष के पहिले यहां पूर्वपक्ष के रूप में प्रदर्शित किया जाता है— इसी पूर्वपक्ष का विचार प्राचार्य प्रभाचन्द्रजी ने इस प्रकरण में किया है
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो मता ॥ १ ॥
- वाक्यपदी प्र• १
आदि-अन्त रहित यह ब्रह्म - ( जगत् ) शब्द रूप है, उसमें किसी प्रकार का क्षरण नहीं होता, इसलिये वह अक्षर है, वही शब्द तत्त्व बाह्य घट पट प्रादि रूप से . दिखाई देने वाले पदार्थ रूप में परिवर्तित होता है, इसी से जगत का व्यवहार चलता है, इस प्रकार एक, अखंड और व्यापक तथा सूक्ष्म ऐसे शब्द ब्रह्म से ही इस सृष्टि का सृजन हुआ है, यह शब्द ब्रह्म ही ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय आदि रूप से परिणमन करता है - ऐसा ही कहा है
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अररिस्थं यथा ज्योतिः प्रकाशान्तर कारणम् । तद्वच्छन्दोऽपि बुद्धिस्थः श्रुतीनां कारणं पृथक् ।। ४६ ।।
जिस प्रकार अरणि में स्थित अव्यक्त प्रग्नि अन्यत्र प्रकाश का कारण हुआ करती है, उसी प्रकार बुद्धि में स्थित जो शब्द ब्रह्म है अर्थात् शब्दमय ज्ञान है - वही सुनने योग्य शब्द रचना रूप होकर पृथक् २ रूप से सुनाई देता है, मतलब कहने का यह है कि जैसे काष्ठ में अग्नि अव्यक्त रहती है और मंथन करने से प्रकट होकर अन्य दीपक आदि रूप प्रकाश का हेतु बनती है, उसी प्रकार शब्दमय बुद्धि या ज्ञान में स्थित जो शब्द है वही वर्ण स्वरूप को धारण कर श्रोता के कर्ण प्रदेश में प्रविष्ट होता है - श्रोतागण के ज्ञान का कारण होता है ।
- वाक्यप० पृ० ३६
आत्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञयरूपं च विद्यते । अर्थरूपे तथा शब्दे स्वरूपं च प्रतीयते ॥ ५० ॥
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