Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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शब्दाद्वै तविचारः
१२१ वा ? तत्राद्यविकल्पोऽसमीचीनः तद्रहितस्यैवार्थस्याध्यक्षे प्रतिभासनात् । न हि तत्र यथा पुरोवस्थितो नीलादिः प्रतिभासते तथा तद्दशे शब्दोपि श्रोतृश्रोत्रप्रदेशे तत्प्रतिभासात् न चान्यदेशतयोपलभ्यमानोप्यन्यदेशोसौ युक्तः, प्रतिप्रसङ्गात् । नापि तादात्म्यम्; विभिन्न े न्द्रियजनितज्ञानग्राह्यत्वात् ।
ज्ञान पदार्थ को जानता है तब उसके अनुभव होने पर ज्ञान में भी शब्दानुविद्धता का प्रतिभास होता है ।
जैन - अच्छा हम प्रापसे अब यह पूछते हैं कि यह शब्दानुविद्धता क्या है ? क्या अर्थ-पदार्थ का जो देश है-उसी देश में शब्द का प्रतिभास होना अर्थात् जहां पदार्थ है वहीं पर शब्द है ऐसा प्रतिभास होना यह शब्दानुविद्धत्व है ? अथवा अर्थ और शब्द का तादात्म्य होना यह शब्दानुविद्धत्व है ? प्रथम पक्ष की अपेक्षा यदि शब्दानुविद्वत्व स्वीकार किया जावे तो वह संगत नहीं बैठता, क्योंकि प्रत्यक्ष से यही प्रतीति में आता है कि पदार्थ शब्द से अनुविद्ध नहीं है, अर्थात्-शब्द से रहित पदार्थ ही प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होता है, ऐसा कभी भी प्रतीत नहीं होता कि जिस स्थान पर नीलादि पदार्थ प्रतिभासित हो रहे हों उसी स्थान पर तद्वाचक शब्द भी प्रतीति में आ रहा हो, शब्द की प्रतीति तो श्रोता के कर्ण कुहरप्रदेश में होती है, अतः ऐसा कहना कि अर्थदेश में शब्द की प्रतीति-प्रतिभास- होना शब्दानुविद्धता है सो न्यायानुकूल नहीं है- क्योंकि वाच्य और वाचक का देश भिन्न २ है, इसलिये वाच्यवाचक का देश अभिन्न मानना कथमपि संगत नहीं हो सकता; अन्यथा अतिप्रसंग दोष का सामना करना पड़ेगा । शब्द और अर्थ - तद्वाच्यपदार्थ - का तादात्म्य शब्दानुविद्धत्व है यदि ऐसा कहा जाये तो यह भी कहना युक्तिशून्य है, क्योंकि शब्द और अर्थ विभिन्न इन्द्रियों के विषय हैं, शब्द सिर्फ कर्णेन्द्रिय का विषय है । और अर्थ किसी भी अन्य इन्दिय ज्ञान का विषय हो सकता है, अतः भिन्न २ इन्द्रिय जनित ज्ञानों के द्वारा ग्राह्य होने से उस शब्द और अर्थ में भिन्नता ही सिद्ध होती है । अनुमान भी इसी बात की पुष्टि करता हुआ कहता है कि जिनका भिन्न २ इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होता है उनमें एकला नहीं होती, जैसे कि रूप और रस में, ये दोनों भिन्न २ इन्द्रियों के द्वारा जाने जाते हैं अतः इनमें एकता नहीं है, इसी प्रकार नीलादि पदार्थ और शब्द हैं अतः इनमें भी एकता नहीं है । शब्दाकार से रहित नीलादि अर्थ का रूप चाक्षुष प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है और नीलादि अर्थ से रहित अकेला शब्द कर्णजन्यज्ञान से प्रतीत होता है, अतः इनमें एकता किस प्रकार से संभावित हो सकती है ?
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