Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे भावात्, एकज्ञानसंसर्गिपदार्थान्तरोपलम्भरूपत्वात्तस्य । न च ज्ञातृव्यापारेण सह कस्यचिदेकज्ञानसंसगित्वं सम्भवतीति । नापि द्वितीयः; सिद्ध हि कार्यकारणभावे कारणानुपलम्भ: कार्याभावनिश्चायकः। न च ज्ञातव्यापारस्य केनचित् सह कार्यत्वं निश्चितम् ; तस्यादृश्यत्वात् । प्रत्यक्षानुपलम्भनिबन्धनश्च कार्यकारणभावः। तत एव केनचित्सह व्याप्यव्यापकभावस्यासिद्धर्न व्यापकानुपलम्भोऽपितन्निश्चायकः । विरुद्धोपलम्भोपि द्विधा भिद्यते विरोधस्य द्विविधत्वात् ; तथा हि-को ( एको) विरोधोऽविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽभावात्सहानवस्थालक्षणः शीतोष्णयोरिव, विशिष्टा
हों हम उन्हें जानते नहीं, फिर उनका अनुपलम्भ कैसे समझे, दृश्यानुपलम्भ चार प्रकार का है-स्वभावानुपलम्भ, कारणानुपलंभ, व्यापकानुपलंभ और विरुद्धोपलंभ, इनमें स्वभावानुपलंभ तो यहां ठीक नहीं है-यहां वह उपयुक्त नहीं है क्योंकि ऐसे अत्यन्त परोक्ष रूप ज्ञाता के व्यापार में स्वभावानुपलंभ की प्रवृत्ति ही नहीं होती है, स्वभावानुपलम्भ तो एकज्ञानसंसर्गी ऐसे पदार्थान्तर की उपलब्धि रूप होता है, मतलब- जैसे पहिले एक जगह पर किसी ने घट देखा फिर उसी ने दूसरी बार खाली भूतल देखा तब उसे वहां घट का अभाव है ऐसा ज्ञान होता है, ऐसा एकज्ञानसंसर्गीपना ज्ञाता के व्यापार के साथ किसी के संभवता नहीं है । दूसरा पक्ष जो कारणानुपलभ है वह भी नहीं बनता है, क्योंकि कार्यकारणभाव सिद्ध हो तब कारण का अभाव कार्य के प्रभाव का निश्चायक होगा, किन्तु ज्ञाता के व्यापार का किसी भी कारगा के साथ कार्यपना सिद्ध तो है नहीं, क्योंकि वह तो अदृश्य है । कार्यकारण भाव तो अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा जाना जाता है और ज्ञातृव्यापार के साथ किसी का अन्वय व्यतिरेक बनता नहीं है, इस प्रकार कारणानुपलंभ से ज्ञातृव्यापार की सिद्धि नहीं होती है। तीसरा पक्ष जो व्यापकानुपलंभ है वह भी ज्ञातृव्यापार के अदृश्य होने से बनता नहीं है । क्योंकि किसी के साथ ज्ञातृव्यापार का व्याप्यव्यापकभाव सिद्ध हो तो व्यापक के अभाव में व्याप्य के अभाव की सिद्धि मानी जाय, परन्तु व्यापक ही जब असिद्धि है तो वह ज्ञाता के व्यापार के अभाव का निश्चायक कैसे होगा। चौथा पक्ष विरुद्धोपलंभ है, सो प्रथम तो विरुद्ध के दो भेद हैं अत: उसके उपलम्भ के भी दो भेद हो जाते हैं, इनमें एक विरोध सहानवस्थारूप है, यह विरोध अपने संपूर्ण कारणों के होते हुए अन्य के सदुभाव में अभावरूप होता है जैसा कि शीत और उष्ण का होता है, वह तो विशिष्ट प्रत्यक्ष से जाना जाता है। प्रकृत में ज्ञाता का व्यापाररूप साध्य किसी विरोधी कारण के होने पर अभावरूप होते हुए
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