Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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ज्ञातृव्यापारविचारः
६६ किञ्चासौ धमिस्वभावः, धर्मस्वभावो वा ? प्रथमपक्षे-ज्ञातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यता । द्वितीयेपि पक्षे-मिणो ज्ञातुर्व्यतिरिक्तो व्यापारः, अव्यतिरिक्तो वा, उभयम्, अनुभयं वा ? व्यतिरिक्तत्वेसम्बन्धाभावः । अव्यतिरेके-ज्ञातैव तत्स्वरूपवत् । उभयपक्षे तुविरोधः । अनुभयपक्षोऽप्ययुक्तः; अन्योन्यव्यवच्छेदरूपाणां सकृत् प्रतिषेधायोगात् एकनिषेधेनापरविधानात् ।
किञ्च, व्यापारस्य कारक जन्यत्वोपगमे तज्जनने प्रवर्तमानानि कारकारिण किमपरव्यापारसापेक्षारिण, न वा ? तत्राद्यपक्षे अनवस्था; व्यापारान्तरस्याप्यपरव्यापारान्तरसापेक्षस्तैर्जननात् । व्यापारनिरपेक्षाणां तज्जनकत्वे-फलजनकत्वमेवास्तु किमदृष्टव्यापारकल्पनाप्रयासेन ? अस्तु वा व्यापारः;
क्रिया को ज्ञातृव्यापार कहा है, अतः वह ज्ञातृव्यापार बोधस्वरूप मानना ही युक्त है।
प्रभाकर अब यह बतावे कि वह व्यापार धर्मिस्वभावरूप है कि धर्मस्वभाव रूप है ? यदि वह मिस्वभावरूप है तो ज्ञाता और उसका व्यापार एक रूप ही हो गये फिर ज्ञाता की तरह उसके व्यापार को जो भिन्न प्रमाण से वह जाना जाता है ऐसी बात क्यों कहते हो, द्वितीयपक्ष को लेकर यदि उसे धर्मस्वभाव रूप माना जाय तो हम पूछते हैं कि वह व्यापार ज्ञाता से भिन्न है, या अभिन्न है, या उभयरूप है, अथवा कि अनुभय रूप है ? यदि वह ज्ञाता से भिन्न है तो ज्ञाता और व्यापार का संबंध नहीं रहेगा, अभिन्न है तो व्यापार ज्ञातारूप ही हो जायगा जैसा कि ज्ञाता का निजस्वरूप होता है, यदि उभयरूप है अर्थात् अभिन्न और भिन्न दोनों रूप वह है ऐसा माना जाय तो विरोध होता है, अनुभयपक्ष तो बिलकुल बनता ही नहीं है क्योंकि जो एक दूसरे के व्यवच्छेदरूप से रहते हैं उनका एक साथ सभी का प्रतिषेध नहीं किया जाता, उनमें एक का निषेध होने पर तो दूसरे की विधि अवश्य हो जाती है । क्योंकि एक का निषेध ही दूसरे की विधि है । तथा ज्ञाता के व्यापार को कारकों के द्वारा उत्पन्न किया जाता है ऐसा माना जाये तो यह बताईये कि ज्ञाता के व्यापार को उत्पन्न करने के लिये जो कारक प्रयुक्त हुए हैं वे अन्य व्यापार की अपेक्षा रखते हैं या नहीं ? यदि रखते हैं तो अनवस्था दोष पाता है, क्योंकि व्यापार के लिये अन्यव्यापार और अन्य व्यापार के लिये अन्यव्यापार की अपेक्षा रहेगी इस प्रकार मानना पड़ेगा। यदि विना अन्यव्यापार के कारक प्रवृत्त होते हुए माने जायें तो वे कारक ही अर्थ प्रकाशन रूप फल को उत्पन्न कर देंगे, काहे को अदृष्ट व्यापार की कल्पना करते बैठना ? अच्छा
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