Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रमेयकमलमार्तण्डे त्वात्तस्याः। कार्यादृष्टौ कथम् ‘एतत्तत्र समर्थम्' इत्यवगमो यतः प्रवृत्तिः स्यादिति चेत् ; प्रास्तां तावदेतत्-कार्यकारणभावविचारप्रस्तावे विस्तरेणाभिधानात् । प्रतीयते च 'इदमभिमतार्थक्रियाकारि न त्विदम्' इत्यर्थमात्रप्रतिपत्तो प्रवृत्तिः पशूनामपि । तस्मादर्थक्रियासमर्थार्थप्रदर्शकत्वमेव प्रमाणस्य हितप्रापणम् । अहितपरिहारोपि 'अनभिप्रेतप्रयोजनप्रसाधनमेतत्' इत्युपदर्शनमेव । तयोः समर्थमव्यवधानेनार्थतथाभावप्रकाशकं हि यस्मात्प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत् । न चाज्ञानस्यैवंविधं तत्प्राप्तिपरिहारयोः सामर्थ्य ज्ञानकल्पनावैयर्थ्यप्रसङ्गात् ।
समाधान-यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि अर्थ क्रिया में समर्थ जो पदार्थ और अर्थ क्रिया ये दोनों प्रवृत्ति का विषय हुआ करते हैं। उनमें यह पदार्थ अर्थक्रिया में समर्थ है यह बात प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा दिखाई जा सकती है, अर्थ क्रिया के समान वह पदार्थ तो अनागत नहीं है, अर्थात् जैसे जल देखा तो वह स्नान पान आदि के योग्य है यह ज्ञान तो हो ही जाता है, हां; उसकी वह स्नानादिक क्रिया तो पीछे ही होगी और इस तरह अर्थ में क्रिया का बोध हो जाने से फिर प्रवृत्ति का अभाव होगा सो ऐसी भी बात नहीं है, क्योंकि अर्थ क्रिया करने के लिये ही तो प्रवृत्ति होती है।
शंका- उस विवक्षित जलादि पदार्थों की क्रिया देखे बिना यह कैसे जाना जावे कि यह पदार्थ इस कार्य को करता है कि जिससे उसमें प्रवृत्ति हो ?
समाधान- यह बात पीछे बताई जावेगी, क्योंकि कार्य कारण भाव का वर्णन करते समय इसे विस्तार से हम कहने वाले हैं। देखो- यह बात है कि किसी भी पदार्थ को देखते ही यह अपने इष्ट कार्य का करने वाला है और यह नहीं इस प्रकार के अर्थ को जानने में प्रवृत्ति तो पशुओं की भी होती है । इसलिये अर्थ क्रिया में समर्थ ऐसे पदार्थ को बतलाना यही प्रमाण की हित प्रापकता है । अहित परिहार भी अनिष्टकारी पदार्थ का दिखा देना रूप ही है। इस प्रकार प्राप्ति और परिहार में समर्थ बिना व्यवधान के पदार्थ का जैसा का तैसा प्रकाशित होना जिसके द्वारा होवे वह प्रमाण है, अतः वह ज्ञान ही है । अज्ञान रूप सन्निकर्ष आदि इस प्रकार के प्राप्ति परिहार कराने में समर्थ नहीं हैं, यदि वे ऐसे होते तो जगत में ज्ञान की कल्पना ही नहीं होती।
प्रमाण के प्राप्ति-परिहार का सारांश
प्रमाण ज्ञानरूप होता है, वह हित की प्राप्ति और अहित का परिहार कराता है, माला, चन्दन, वनिता आदि पदार्थ हितरूप माने गये हैं, और शत्रु, कंटक,
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